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सरकार के आधे कार्यकाल और आधे अधूरे कार्यों के बीच, लड़ता संघठन, भटकता विपक्ष, तरसता जनमानस

पी.चंद, शिमला |

हिमाचल की भाजपा सरकार अपने कार्यकाल के आधा वक़्त गुजार चुकी है। यानी सरकार ने अढ़ाई साल का कार्यकाल पूरा कर लिया है। इन दो सालों में सरकार ने क्या किया इसका आंकलन तो शायद सरकार भी नहीं कर पाई है। प्रदेश की जनता नित नए बोझ तले दब रही है। सरकार कामकाज कम कोरोना और पार्टी की मुश्किलों को सुलझाने में व्यस्त है। लेकिन संघठन में मचा बबाल सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है। उधर विपक्ष भी मुद्दों से भटककर आपसी गुटबाज़ी में मसरूफ है।

बात चली है तो पहले विपक्ष की ही कर लेते है। जब कांग्रेस सत्ता में थी उस वक़्त भी संघठन और सरकार के बीच की लड़ाई किसी से छिपी नहीं है। विपक्ष में आने के बाद भी गुटबाज़ी चरम पर है। पिछले अढ़ाई सालों में कांग्रेस सत्ता पक्ष को घेरने के बजाए खुद को घेरने में जुटा हुआ है। कुलदीप राठौर के अध्यक्ष बनने के बाद ये उम्मीद थी कि पार्टी में सामंजस्य बैठ जाएगा। लेकिन गुटबाज़ी कम होने के बजाय बढ़ती चली गई। कांग्रेस की आपसी खींचतान किसी से छुपी नहीं है।

पूर्व प्रदेशाध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुख्खू पहले ही कांग्रेस अध्यक्ष के ख़िलाफ़ मोर्चा खोले हुए है। अब तो कौल सिंह सहित कई बड़े नेता उनकी ख़िलाफ़त के लिए खुलकर सामने आ गए है। हॉली लॉज की लंच डिप्लोमेसी कांग्रेस के बीच मचे घमासान का ताजा उदाहरण है। कांग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी समस्या ये है कि पार्टी बुजुर्ग नेताओं से बाहर नहीं निकल पा रही है। जिसका खामियाजा सिंधिया की नाराज़गी के रूप में कांग्रेस को मध्यप्रदेश में सत्ता गंवाकर चुकाना पड़ा। राजस्थान का ताज़ा घटनाक्रम भी युवाओं को तरज़ीह न देने का नतीजा है। जहां सचिन पायलट की नाराजगी पार्टी की लुटिया डुबोने के लिए बेकरार है।

हालांकि भाजपा में युवाओं को तरज़ीह दी जाती है और भाजपा में सेकंड लाइन की लंबी फेरहिस्त है। लेकिन प्रदेश संघठन में सब ठीक नही चल रहा है। जिसको लेकर सियासी गलियारों में खूब घमासान मचा हुआ है। सरकार और संगठन की आपसी लड़ाई में पहले डॉ बिंदल को अपना पद गंवाना पड़ा। अब भी अध्यक्ष पद को लेकर तक़रार जारी है। पहले धवाला और पवन राणा के बीच अब पवन राणा और इंदु गोस्वामी के बीच विवाद राजनीतिक फ़िज़ाओं में बबाल मचाए हुए है। सियासी घमासान दोनों ही दलों में कम नही है। दोनों में फ़र्क इतना है कि एक तरफ़ बुजुर्ग नेताओं के हाथों पार्टी खेल रही है। दूसरी तरफ युवा खून राजनीति के मैदान में एक दूसरे को पछाड़ कर आगे बढ़ने पर आमादा है।