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सैर सपाटे की खबर पर हाय तौबा क्यों? पत्रकारिता पर सवाल क्यों?

शिमला ( पी. चंद ): हिमाचल विधानसभा बजट सत्र के अंतिम दिन जो हुआ वह हैरान कर देने वाला है। सदन के अंदर सत्ता पक्ष व विपक्ष दोनों लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के ख़िलाफ़ खड़े दिखे। जिससे एक बात तो साफ़ हो गई कि अपनी सुख सुविधाओं पर आंच न आए इसके लिए माननीय किसी भी हद तक जा सकते हैं। मीडिया जब इस पर लिखे भी तो हाय तौबा मच जाती है। विपक्ष की तरफ़ से मामला उठा तो सत्ता पक्ष भी साथ खड़ा हो गया। विपक्ष की तरफ से माननीय ने सदन में बताया कि उनको मात्र 55 लाख वेतन मिलता है जबकि आईएएस को साढ़े तीन लाख से ज्यादा का वेतन मिलता है। माननीय शायद ये भूल गए कि एक आईएएस बनने के लिए कितनी मेहनत लगती है। सरकारी नौकरी पाने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं इसका भी इनको इल्म नहीं?

माननीय शायद ये भूल गए कि हिमाचल में एक विधायक को हर माह 2 लाख से ऊपर वेतन भत्तों के रूप में मिलता है। इसके अलावा अन्य सुख सुविधाएं अलग से मिलती हैं। मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों के वेतन भत्ते इससे भी ज्यादा हैं। नौकर चाकर अलग से चाकरी करते हैं। माननीयों को दिए जाने वाले वेतन भत्तों के मामले में हिमाचल प्रदेश टॉप 5 राज्यों में से एक है। लेकिन बखेड़ा सैर सपाटे को लेकर खड़ा हुआ है। सैर सपाटे पर एक माननीय को 4 लाख रुपये साल में मिलता है क्यों?

मुख्यमंत्री कहते हैं कि हमने माननीयों के लिए 4 लाख की लिमिट को नहीं बढ़ाया है। उनका कहना है कि यदि किसी सदस्य को दिल्ली- चंडीगढ़ हिमाचल भवन या सदन में कमरा नहीं मिलता है तो उसको 7500 रुपए तक कमरा लेने के छूट थी। अब इस लिमिट को अब हटा दिया गया है। जिसका सीधा अर्थ है कि अब माननीय 20 हज़ार का कमरा लेकर भी रह सकते हैं। हालांकि इस पर सदस्य ने कहा कि 3 से चार हज़ार का कमरा मिल जाता है। खैर देखते हैं कि 3 से 4 हज़ार कमरे में कितने लोग ठहरते हैं। अगर कोई विधायक न्यूनतम 5 हजार का कमरा लेकर भी रहता है तो 4 लाख के हिसाब से वह अढ़ाई माह तक निज़ी होटल का कमरा लेकर रह सकता है।

हिमाचल भवन और सदन में 70 के लगभग कमरे हैं जो हमेशा माननीय और अफसरों के नाम बुक रहते हैं। आम आदमी को कभी वहां कमरा नहीं मिलता है। ये भी माननीय भूल जाते हैं। कमरा शाम 5 बजे के बाद बुक होता है। आखिर वक़्त पर कह दिया जाता है कि आपके नाम का कमरा बुक नहीं हो पाया है। तो फ़िर इन कमरों में कौन ठहरता है।

चलो पत्रकारों को तो सरकार विरोधी खबरों का खमियाज़ा हमेशा भुगतना ही पड़ता है। क्योंकि सत्ता अपने लिए चाटूकारिता वाली पत्रकारिता को पसंद करती है। लेकिन मुख्यमंत्री ने तो अपने कर्मचारियों को भी नहीं बख्शा, मुख्यमंत्री ने यहां तक कह दिया कि अगर कोई कर्मचारी पेंशन चाहता है तो नौकरी छोड़कर चुनाव लड़ ले। ऐसी बात करने से पहले माननीयों को ये समझ लेना चाहिए कि एक सरकारी नौकर अपनी सारी जिंदगी सरकारी सेवा में लगा देता है तब भी उसे पेंशन नहीं दी जा रही है। जबकि एक माननीय एक बार शपथ लेकर 82 हज़ार रुपए की पेंशन का हक़दार हो जाता है, ऐसा क्यों? चुनाव लड़ने वाले अपने आप को जन सेवक कहते हैं। जन सेवक को वेतन और भत्तों से नहीं तोला जा सकता है। ऐसे में लोकतंत्र के मंदिर में ये अहंकार कहां तक उचित है?

अब पत्रकारिता में भी खामी ये है कि अधिकतर मीडिया सत्ता के तलवे चाटने में व्यस्त है। उनको ही पहले जानकारियां मिल जाती हैं। ये सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि अगर विधानसभा के दौरान कैबिनेट का कोई प्रेस नोट जारी नहीं होता है तो फ़िर जानकारियां कैसे लीक हो रही हैं। कुछ चुनिंदा पत्रकारों को कौन आधी -आधुरी जानकारियां उपलब्ध करवाता है। इस पर कार्रवाई करने के बजाए पत्रकारों पर कार्रवाई करना बेमानी प्रतीत होता है। कैबिनेट कौन सी एक्सक्लूसिव है जिसकी जानकारी कैबिनेट के अंदर से ही चुनिंदा पत्रकारों को दी जाती है। ये सारे सवाल हैं जो सरकार की मंशा पर उठते है? रही बात विशेषाधिकार की तो पत्रकारों के लिए ये कोई नई बात नही है। हां इतना ज़रूर है कि बिना तथ्यों और सही जानकारी के इस तरह की खबरें चलाना पत्रकारिता के भविष्य के लिए बहुत बड़ा खतरा है?

Balkrishan Singh

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