<p>लोकसभा चुनावों से पहले प्रदेश कांग्रेस संगठन में हुए बदलाव से नए राजनीतिक समीकरण बन गए हैं। अब तो हालात़ ऐसे हो गए हैं कि कांग्रेस का विधायक दल भी दो गुटों में बंटा दिखाई दे रहा है। ऐसी स्थिति में ये क़हना ग़लत नहीं होगा कि पिछले 6 महीने से कांग्रेस प्रभारी ने जो एकजुटता का पाठ पढ़ाया था उसपर पूरी तरह से पानी फ़िर गया है। पार्टी में मची इस ख़लबली में पार्टी के वरिष्ठ नेता वीरभद्र सिंह का जरूर महत्वपूर्ण योगदान रहा है। क्योंकि ये कोई पहली दफा नहीं जो वे ऐसा कर रहे हैं। इससे पहले भी वे पार्टी में कई नेताओं के बन्ने लगा चुके हैं।</p>
<p>इसमें कोई दो राय नहीं है कि कांग्रेस पार्टी को वीरभद्र सिंह ने काफ़ी बल दिया है। लेकिन, प्रदेश में बदलते हालात़ों के साथ उनकी मौजूदगी में पार्टी ने कई बड़े नेताओं को साइड लाइन भी कर दिया है। यहां तक कि इन नेताओं की अनदेखी से पार्टी को काफी नुकसान भी झेलना पड़ा है। उदाहरण के तौर पर 1993 में वीरभद्र सिंह ने पंडित सुखराम की कुर्सी मुख्यमंत्री पद से प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के कहने के बाद भी छीन ली थी। 1998 में पंडित सुखराम से कॉम्प्रोमाइज न कर उन्होंने पार्टी को पार्टी को नुकसान पहुंचाया और पार्टी को हार मिली। उसके बाद 2003 में भी स्थिति कुछ ऐसी ही रही।</p>
<p>2012 में हुए चुनावों के दौरान उन्होंने चुनावों से ठीक पहले ठाकुर क़ौल सिंह को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी से हटवाया और खुद अध्यक्ष बनकर पार्टी को जितवाने की जिम्मेदारी अपने कंधो पर ली। इसके बाद हाईकमान को प्रेशराइज़ करते हुए उन्होंने सरकारी बनाई और कौल सिंह ठाकुर को मंत्री पद देखर मुंह बंद करवाया है। प्रदेश की राजनीति में उनकी सक्रियता ख़ास तौर पर चुनावों में अधिक रही और जनता को भांपने के बाद ही वे सियासत में उल्टफ़ेर करते रहे हैं।</p>
<p>अब 2017 के विधानसभा चुनावों से उन्होंने लगातार पूर्व अध्यक्ष सुक्खू को हटाने की क़वायद शुरू की। लेकिन हाईकमान ने उनकी एक न मानी और सुक्खू को नहीं हटाया। सुक्खू को लेकर उनके बयानों से पार्टी की खूब फ़जीहत हुई और उन्होंने टिकट वितरण का 80 प्रतिशत हिस्सा अपने पास रखा। उसके बाद चुनावों में कांग्रेस की हार हुई, जिसकी वज़ह बाद में वीरभद्र सिंह ने सुक्खू को ठहराया।</p>
<p>अब 2019 के चुनावों के मद्देनज़र प्रदेश कांग्रेस संगठन में बदलाव किये गए हैं। इस पर बेशक सुक्खू के कार्यकाल पूरा होने की बात सामने आ रही हो, लेकिन उन्हें पद से हटाने पर वीऱभद्र सिंह अपनी जीत मान रहे हैं। यहां तक कि उनके एक बयान के बाद से प्रदेश कांग्रेस में वर्चस्व की जंग शुरू हो गई है। खुल कर नेता एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी कर रहे हैं औऱ इसपर हाईकमान भी परेशान नज़र आ रहा है। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि यदि जल्द ये बयानबाजी थमी नहीं तो कांग्रेस को एक बार फिर 2014 की तरह हार मिलना तय है।</p>
<p>वहीं, एक बयानबाजी से बदले समीकरणों में बीजेपी से जो बड़े नेता कांग्रेस में आने की तैयारी में थे उनको भी अब एक बार फिर से अपने भविष्य की राजनीति को लेकर निर्णय लेने के लिए सोचना पड़ रहा है। सूत्र बता रहे थे कि बीजेपी की एक बड़ी जमात जो मौजूदा सरकार से अंसतुष्ट है औरकांग्रेस पार्टी में जाने का मन बना चुकी थी, लेकिन राजनीतिक रूप से बदले इस घटनाक्रम में अब उनके निर्णय भी प्रभावित हो सकते हैं।</p>
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