<p>शिमला, एक वक्त था देश के जब नेता गरीब जरूरतमंद के लिए विकास के नाम पर सरकार बनाते थे। उनके लिए योजनाएं बनती थी। उसके बाद सरकारी कर्मियों पर आधारित नीतियां बनने लगी। सरकार के लिए सरकारी कर्मी वोट बैंक का सबसे बड़ा साधन बन गए। जन सेवक और सरकारी कर्मचारी में बड़ा अंतर ये होता है कि सरकार अफसरशाहों के साथ नीतियां बनाती है ये सरकारी कर्मी उन्हें धरातल पर लागू करने का दम्भ भरते हैं।</p>
<p>लेकिन अब कर्मचारियों का ये गुरुर भी टूट रहा है क्योंकि सरकारी दफ्तरों का धड़ाधड़ निजीकरण हो रहा है। ठकेदार के सौजन्य से भर्तीयां की जा रही है। जो सरकारी कर्मी है भी वह पुरानी पेंशन बहाली का संघर्ष कर रहे है। देश बदल रहा है क्योंकि नेता अपने फायदे के हिसाब से नियम कानून बनाती है। अपनी सुख सुविधाओं का खास ध्यान रखते हैं।</p>
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<p>ये बात इसलिए बतानी पड़ रही है क्योंकि जो नेता कभी समाज सेवा करने राजनीति में आते थे वह अपनी सेवा में लग गए हैं। हिमाचल प्रदेश में नेता बढ़ते कर्ज़ को लेकर एक दूसरे पर निशाना साध रहे हैं लेकिन अपने वेतन भत्तों एवम पेंशन पर उनको कभी आपत्ति नहीं हुई। लाखों की गाड़ियों की खरीद पर कभी चर्चा नहीं होती। नेता बनने से पहले जिस व्यक्ति के पास कुछ नहीं होता और चुनाव जीतने के बाद करोड़ पति कैसे बन जाता है। ये सब सवाल है।</p>
<p>आपको सन् 1974 के दौर में लिए चलते हैं जब एक चूड़ियां बेचने वाले दुकानदार की वजह से माननीयों के लिए पेंशन लगी थी। मेवा से 1967 से 1972 तक विधायक रहे अमर सिंह जब चुनाव हारे तो उनको परिवार का गुजारा चलाने के लिए चूड़ियां बेचनी पड़ी। डॉ परमार ने जब ये देखा तो उनका मन पसीज गया व 300 रुपए पेंशन का प्रावधान विधायकों के लिए कर दिया। आज 300 रुपए की ये पेंशन 80 हज़ार को पार कर गई। प्रदेश पर कर्जा 60 हज़ार करोड़ पार कर गया। प्रदेश में बेरोजगारी 10 लाख को पार कर गई। जनता त्रस्त है लेकिन नेता मस्त हैं।</p>
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