<p>PM मोदी की बिलासपुर या पूर्व में मंडी में हुई रैली की मुकाबले राहुल गांधी की पड्डल मैदान वाली रैली फीकी साबित हुई। जबकि, इस रैली के लिए स्टेट मशीनरी का पूरा-पूरा इस्तेमाल किया गया। मैदान में कुर्सियों को लेकर ही चर्चा सबसे ज्यादा दिखी। अधिकांश लोगों ने माना की ग्राउंड पर 12 से 15 हजार के आस-पास कुर्सियां थीं और लोग भी 18 से 20 हजार के आसपास पहुंचे थे।</p>
<p><span style=”color:#e74c3c”><strong>PM नरेंद्र मोदी Vs राहुल की रैली </strong></span></p>
<p>पीएम नरेंद्र मोदी की बिलासपुर में रैली के ऐलान के बाद ही कांग्रेस ने भी राहुल गांधी के मंडी में रैली की घोषणा कर दी। इसके बाद ही लोगों में यह कौतूहल का विषय बन गया कि रैली के मामले में कौन किसको मात देता है। अगर, इस एंगल से देखें तो नरेंद्र मोदी का ब्रिगेड राहुल के ब्रिगेड पर पूरी तर भारी पड़ा है।</p>
<p>पड्डल मैदान में जुटी भीड़ मोदी की रैली के मुकाबले महज एक तिहाई ही दिखाई दी। मैदान के बीच हिस्से से स्टेज बनाकर एक बड़ा हिस्सा खाली छोड़ा गया था। इसके बावजूद मैदान का दर्शक दिर्घा भी पूरी तरह से खाली दिखा। जबकि, मंडी में ही जब मोदी ने रैली की थी तब वहां 30 से 40 हजार तक कुर्सियों के इंतजाम किए गए थे और दर्शक दिर्घा भी भरा हुआ था। इसके अलावा बिलासपुर रैली में ना सिर्फ मैदान भरा रहा बल्कि मैदान के बाहर भी लोग भरे रहे। बीजेपी ने मोदी की रैली में एक लाख से ज्यादा लोगों के मौजूद रहने का दावा किया था।</p>
<p>राहुल गांधी के पड्डल मैदान पहुंचने के 10 मिनट पहले तक तो मैदान पूरी तरह खाली दिखाई दे रहा था। लेकिन, जैसे ही राहुल मैदान पर पहुंचे स्थिति में थोड़ा बदलाव आया और लोगों का एक अच्छा-खासा समूह कम से कम कुर्सियों पर विराजमान हुआ। ख्याल रहे कि पड्डल मैदान में 1 लाख लोगों की बैठने की पूरी क्षमता है।</p>
<p><span style=”color:#e74c3c”><strong>सरकार की उपलब्धियों पर रैली, लेकिन निशाने पर मोदी </strong></span></p>
<p>मंडी की रैली को हिमाचल सरकार ने अपनी उपलब्धियों के बखान के तौर पर आयोजित कराया था और यह विशुद्ध रूप से सरकारी आयोजन था। लेकिन, इस दौरान सभी नेतागण बजाय अपने विकास की चर्चा को लोगों तक पहुंचाने के नरेंद्र मोदी पर ही अटैक करने में उलझे रहे। राहुल गांधी, वीरभद्र सिंह, शिंदे, रंजीत रंजन, सुक्खू समेत सभी नेता अपने विकास कार्यों से ज्यादा मोदी की आलोचना को तरजीह देते हुए दिखाई दिए।</p>
<p>ऐसे में यह रैली भी अपने मकसद से कहीं भटक गई। हालांकि, कई मुद्दों पर विकास कार्यों का जिक्र हुआ लेकिन वह भी किनारे से छूते हुए निकल गया। किसी ने स्पेशली सरकार के कामकाज पर बोलने की जहमत नहीं उठाई।</p>
<p>राहुल गांधी ने मोदी के गुजरात से हिमाचल की तुलना जरूर की। मगर, कई ऐसी बाते थीं जिनका तोड़ भी उनके ही भाषण में समाहित था। मसलन गुजरात के मुकाबले स्कूल-कॉलेजों के ज्यादा खुलने और बेरोजगारी भत्ते से संबंधित उनके तर्क अच्छे रहे। लेकिन, इसके भीतर भी कई तरह के कॉन्ट्राडिक्शंस छिपे हुए थे।</p>
<p><span style=”color:#e74c3c”><strong>भीड़ नहीं जुटने के मायने</strong></span></p>
<p>चुनाव के दौरान रैलियों में उमड़ने वाली भीड़ को हालांकि किसी ठोस वोट के रूप में नहीं देखा जा सकता है। अगर वैसे देखेंगे तो इसी राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका गांधी के नाम पर उत्तर प्रदेश में लाखों की संख्या में भीड़ जुट जाती है। लेकिन, जब मतदान की बारी आती है तब कांग्रेस की झोली खाली रहती है। कई जलसों और रैलियों में भीड़ तो जुटती है लेकिन वोट में तब्दील हो यह कहना कठिन है। यही बात मोदी और राहुल दोनों की रैलियों पर भी लागू होती है।</p>
<p>मगर, रैली में जुटे लोगों के रुझान से कई बातों का भी अंदाजा लगाया जा सकता है। रैलियों की भीड़ से पार्टी के भीतर की मनोदशा को भी समझा जा सकता है। इस नज़रिये से देखें तो बीजेपी अपने मतभेदों को अपने तक सीमित रखने में कामयाब रही है। जबकि, राहुल की रैली से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पार्टी की हालत किस कदर है। क्योंकि, जितनी भीड़ इस रैली में पहुंची, उससे कहीं ज्यादा भीड़ तो कांग्रेस के ही कुछ नेताओं की 'जनसभा' में उमड़ जाती है। सोचने वाली बात तो है…</p>
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