देश में गिरता हुआ शिक्षा का स्तर बहुत ही चिंता का विषय बन चुका है। जबकि देश का मानव संसाधन मंत्रालय गहरी नींद में है और उसी के नक्शे कदम पर हिमाचल प्रदेश का शिक्षा मंत्रालय भी चल रहा है। शर्मनाक विषय है कि जो अभी विश्व की टॉप यूनिवर्सिटीज की लिस्ट निकली है उसमें दशकों से भारत में अपनी एक पायदान तय की हुई थी जोकी विश्व के टॉप 150 से 250 विश्वविद्यलयों के बीच रहती थी। यह पिछले 5 वर्षों में जो भारत में शिक्षा का स्तर गिरा है वह चिंतनीय तो है ही पर शर्मनाक भी है। पहली मर्तबा ऐसा हुआ है कि विश्व के टॉप 300 विश्वविद्यालयों में भारत का कोई भी विश्वविद्यालय नहीं है। जो 300 से ऊपर भारत का विश्वविद्यलय है उसमें इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंसेज बंगलूरू है। इसके अलावा इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी, इंडियन इंस्टिट्यूट मैनेजमेंट, दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहर लाल विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय या किसी अन्य केंद्रीय संसथान का नाम विश्व स्तर पर नहीं आ पाया है।
देश की केंद्र सरकार ने जो शिक्षा बजट पर कैंची चलाई है यह सब उसी का परिणाम है। अगर तथ्यों आधारित बात करे जहां यूपीए सरकार देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद का 10 प्रतिशत खर्च करने की दिशा में अग्रसर थी। वहीं पर केंद्रीय वर्तमान सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद का 5.44 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने का फैसला किया है। जो छात्र देश में रिसर्च या पीएचडी करते थे पिछले 5 वर्षों में उनकी संख्या में भी भारी गिरावट पाई गई है, तथ्यों के आधार पर देश में हर वर्ष साढ़े चार से पांच लाख छात्र रिसर्च में जाते थे जो अब सिर्फ 95 हज़ार रह गए है। देश में रिसर्च कर रहे छात्रों का सालाना बजट के केवल 50 करोड़ कर दिया जबकि जहां पर हौडी-मोदी इवेंट हुआ वहां पर केवल एक रिसर्च कर रहे छात्र पर 42 करोड़ सालाना खर्च किया जाता है, तो शिक्षा का स्तर गिरना लाजमी है।
अब तो केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कोई परमानेंट नियुक्तियां भी नहीं हो पाएगीं। ऐसा आदेश केंद्र की सरकार का आया है । जबकि जो भी नियुक्तियां होगी वह गेस्ट फेकल्टी की ही होंगी और वह भी सेंट्रलाइज्ड तरीके से, जिसमे विश्वविद्यालय के कुलपति को भी ज्यादा नहीं पूछा जायेगा, केवल आपके पास आरएसएस जैसे विशेष विचारधारा के संगठन का प्रमाण पत्र हो। ये इस देश में कैसी शिक्षा व्यवस्था लागू की जा है जिसमें हर नियम कानून को ताक पर रखा जा रहा है।