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इस वजह से देवी हिडिम्बा के बिना नहीं मनाया जाता दशहरा

रमित शर्मा |

कुल्लू दशहरा  देवी हिडिम्बा के बिना कल्पना भी नहीं की जा सकती। कहा जाता है कि देवी हिडिम्बा ने ही कुल्लू के राजाओं को राज पाठ दिलाया था। शायद यही कारण है कि आज भी अन्तर्राष्ट्रीय कुल्लू दशहरे में देवी हिडिम्बा का जाना लाज़मी माना जाता है। कहा जाता है कि जब तक देवी कुल्लू न पहुंचे, तब तक कुल्लू दशहरे को शुरू नहीं किया जा सकता।

राजघराने की दादी हैं देवी हिडिम्बा

कुल्लू घाटी की अधिष्ठात्री देवी हिडिम्बा को राज परिवार की दादी भी कहा जाता है। कुल्लू दशहरा देवी हडिम्बा के आगमन से शुरू होता है। पहले दिन देवी हडिम्बा का रथ कुल्लू के राजमहल में प्रवेश करता है और देवी हिडिम्बा की पूजा अर्चना के बाद भगवान रघुनाथ की पालकी को भी ढालपुर में लाया जाता है। देवी हिडिम्बा पूरे दशहरा तक अपने अस्थायी शिविर में ही रहती हैं और लंका दहन के बाद ही अपने मूल स्थान मनाली लौटती हैं।

क्या है इसके पीछे की कहानी

कुल्लू के दशहरे का सीधा संबंध रामायण से नहीं जुड़ा है। बल्कि कहा जाता है कि इसकी कहानी एक राजा से जुड़ी है। सन् 1636 में जब जगतसिंह यहां का राजा था, तो मणिकर्ण की यात्रा के दौरान उसे ज्ञात हुआ कि एक गांव में एक ब्राह्मण के पास बहुत कीमती रत्न हैं। राजा ने उस रत्न को हासिल करने के लिए अपने सैनिकों को उस ब्राह्मण के पास भेजा। सैनिकों ने उसे यातनाएं दीं, डर के मारे उसने राजा को श्राप देकर परिवार समेत आत्महत्या कर ली।

कुछ दिन बाद राजा की तबीयत खराब होने लगी। तब एक साधु ने राजा को श्रापमुक्त होने के लिए रघुनाथजी की मूर्ति लगवाने की सलाह दी। अयोध्या से लाई गई इस मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे ठीक होने लगा और तभी से उसने अपना जीवन और पूरा साम्राज्य भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया। तभी से यहां दशहरा पूरी धूमधाम से मनाया जाने लगा।