हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा से 30 किलो मीटर दूर स्थित ज्वाला देवी मंदिर हिंदुओं का एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। ज्वालामुखी मंदिर को जोतां वाली का मंदिर और नगरकोट भी कहा जाता है। ज्वालामुखी मंदिर को खोजने का श्रेय पांडवों को जाता है। इसकी गिनती माता के प्रमुख शक्ति पीठों में होती है।
ज्वालामुखी मंदिर की खास बात यह है कि यहां कभी न ख़त्म होने वाली एक ज्वाला है। इस ज्वाला को भक्त ज्वाला जी कहकर पूजते हैं। भक्तों की ज्वाला जी पर अपार श्रद्धा और विश्वास है। इस दिव्य ज्योति के स्त्रोत और उसकी शक्ति पर कई शोध हुए, लेकिन एक बार फिर विज्ञान इस दिव्य चमत्कार और अनसुलझी पहेली के सामने नतमस्तक हो गया।
कहते हैं कि अकबर ने अपने शासन काल में इसे बुझाने के कई प्रयास किए, लेकिन उसके हाथ सफलता नहीं लगी। यहां के पुजारी निडरता से ज्वाला में हाथ डालते हैं और उस हाथ को आशीर्वाद स्वरूप भक्तों के सिर पर रखते हैं। ऐसा करते हुए उन्हे कोई नुकसान नहीं होता। इस दिव्य ज्योति के स्त्रोत का आज तक कोई पता नहीं लगा पाया है।
बाकी मंदिरों की तुलना में अनोखा, नहीं होती मूर्ति की पूजा
यह मंदिर माता के अन्य मंदिरों की तुलना में अनोखा है, क्योंकि यहां पर किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती है। यहां पृथ्वी के गर्भ से निकल रही नौ ज्वालाओं की पूजा होती है। इन नौ ज्वालाओं के ऊपर ही मंदिर बना दिया गया है। इन नौ ज्योतियां को महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यावासनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अंबिका, अंजीदेवी के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर का प्राथमिक निर्माण राजा भूमि चंद के करवाया था। बाद में महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसारचंद ने 1835 में इस मंदिर का पूर्ण निर्माण कराया।