नवरात्रि शुरु होते ही संपूर्ण भारत मातृमय हो उठता है. ‘जय माता की’ के जयकारों से हवाएं पवित्र हो जाती हैं. मंदिरों में मां के भक्तों की लम्बी कतारें, भक्तिमय कीर्तन संगीत शुरू हो जाते है.
ऐसा लगता है मानो जनमानस की धमनियों में दौड़ रही भक्ति−भावना को पंख लग गए हैं. उसमें नई स्फूर्ति आ गई है. मां की भेंटों ने रात्रि के सूनेपन एवं कालिमा को भी हर लिया है. नवरात्रों का यह पावन पर्व नौ दिनों का होता है.
नवरात्रि का पर्व नौ दिनों तक ही क्यों मनाया जाता है?
शायद हम इसके अंदर छुपे रहस्य से अनभिज्ञ हैं? आखिर इस उत्सव को मनाने के पीछे क्या कारण है? एकदा एक अमेरीकी पर्यटक नवरात्रों के दिनों में भारत भ्रमण पर आया हुआ था. उसने यह सारे प्रश्न अपने भारतीय मित्र से पूछ लिए.
भारत वासी ने कहा कि−’देवी माँ के दिन चल रहे हैं…यह एक सामाजिक उत्सव है और सदियों से इसकी परंपरा चली आ रही है…मैं तो बचपन से ही ऐसा देखता आया हूँ…उत्सव मनाने चाहिए…यह अच्छी बात है.’ तो आपको समझ आ ही गया होगा कि वह भारतीय उस सैलानी की जिज्ञासा को संतुष्ट नहीं कर पाया.
सच में ज्ञान की नगरी भारत में रहते हुए यह हमारा अज्ञान नहीं तो और क्या कहा जाए? जिस पर्व में हम तन, मन से सम्मिलति होते हैं, उसी के वास्तविक तथ्यों से अनभिज्ञ हैं. जिन नवरात्रों के पर्व को हम इतनी धूम−धाम से मनाते है.
नवरात्रे वर्ष में दो बार आते हैं. और दोनों ही बार यह परिवर्तन के समय मनाए जाते हैं. ग्रीष्म आरम्भ होने से पहले शुरु होने वाले नवरात्रो ‘चैत्र नवरात्र’ या ‘वासन्ती नवरात्र’ कहलाते हैं एवं सर्दियां आरम्भ होने से पहले के नवारात्रो ‘शारदीय नवरात्र’ कहलाते हैं.
इस समय सम्पूर्ण वातावरण में हलचल मच जाती है. हमारी प्रकृति माँ अनेकों परिवर्तनों से गुजरती है और इनका सीधा प्रभाव हमारे शरीर पर भी पड़ता है. आरोग्यशास्त्र के अनुसार इस दौरान ज्वर, कफ, शीतला, महामारी, खाँसी, इन्पफैक्शन इत्यादि होने से मनुष्य रुग्ण हो जाता है.
इन दिनों आहार−विहार का विशेष ध्यान रखने की आवश्यक्ता होती है. वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले इस तथ्य से परिचित थे. इसलिए इन दिनों में उन्होंने फलाहार, कम एवं सुपाच्य भोजन ग्रहण करने पर बल दिया. इसलिए नवरात्रों इत्यादि में व्रत−उपवास रखते है.
इस कथा के अंदर हम सबके लिए एक महान संदेश छुपा हुआ है. जो हमें मन में स्थित तामसी प्रवृतियों जैसे आलस्य, जड़ता, अविवेक, कामुकता, नृशंसता, तमोगुण इत्यादि महिषासुर के ही विभिन्न आसुरी रूप हैं. इन आसुरी प्रवृतियों का नाश करने वाली मां दुर्गा भी हमारे भीतर ही निवास करती है. दुर्गा सप्तशती में आता है−
या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमरू।।
भाव जो देवी सब भूत प्राणियों में चेतना रूप में निवास करती है, उसे हम नमन करते हैं, नमन करते हैं, नमन करते हैं. परंतु हमारे भीतर अन्तर्निहित चेतना यदेवीद्ध अभी सुषुप्तावस्था में है, जाग्रत नहीं है.
इसलिए हमारे भीतर तमोगुण अर्थात महिष का ही आध्पित्य है. नवरात्राों का यह पर्व हमें संदेश देता है कि हम अपनी सभी सात्विक प्रवृत्तियों, शुभ संकल्पों एवं गुणों को एकत्रा करें और एक शुभ, सात्विक, शुभ्र जीवन की और अग्रसर हों.