चीन से चल रहे टकराव के बीच पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने अपने एक लेख में एक सुझाव दिया है. उनका कहना है कि भारत को चीन के साथ जैसे को तैसा वाला बर्ताव करना चाहिए. दोनों देशों के इस विवाद में बड़ा सवाल 4 हजार किलोमीटर लंबी सीमा को लेकर है. लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (LAC) किस इलाके में कहां पर है, इस बारे में दोनों देशों की अलग राय है. अगर चीन जानबूझकर बार-बार भारतीय इलाके में घुसपैठ कर सकता है, तो हम भी उसके साथ ऐसा ही कर सकते हैं.
जैसा चीनी करते आए हैं, उसी तरह हम भी जहां चाहें, वहां नए दावे ठोक सकते हैं. साल 2020 तक चीनी यह मान रहे थे कि उनका इलाका गलवान (Galwan river) और शायोक नदियों के संगम से 7-8 किलोमीटर दूर है और उसके बाद उनका कथित इलाका गोगरा के पास चांगलुन और कुगरांग नदियों के किनारे-किनारे चलता जाता है. लेकिन साल 2020 में चीनियों ने भारतीय गश्ती दल का रास्ता रोका. उन्हें गलवान (Galwan valley) और कुगरांग (Kugrang) घाटियों के उस हिस्से में नहीं जाने दिया, जिसे वे पहले भारत का इलाका मान चुके थे.
दरअसल भारत जिस तरह रक्षात्मक रवैया अपनाता है, चीन उसका फायदा उठाता है. साल 2020 में पूर्वी लद्दाख में क्या हुआ था, इसके बारे में उस वक्त सही जानकारी नहीं मिल पा रही थी. कन्फ्यूजन फैल गया था. अभी हाल में तवांग के पास यांग्त्से इलाके (Chinese transgression in Yangtse area) में चीन ने घुसपैठ की कोशिश की. इस बार भी मोदी सरकार ने चुप्पी साधे रहना बेहतर समझा.
यह रवैया ठीक नहीं है. हिमालय क्षेत्र में हमें साफ तौर पर यह माहौल बनाना होगा कि अगर कुछ गड़बड़ हुई तो हम पलटकर जोरदार वार कर देंगे. ऐसा होने पर चीन को अहसास हो जाएगा कि मनमानी नहीं चल पाएगी. इसके साथ ही हमें एक अच्छी बॉर्डर मैनेजमेंट स्ट्रैटेजी बनानी होगी ताकि चीन बार-बार घुसपैठ की कोशिश से बाज आए. चीन की ऐसी हरकतों का बॉर्डर से कुछ खास लेनादेना नहीं है. वह तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के बढ़ते कद की राह में रोड़े डालने के इरादे से ऐसा करता है. घुसपैठ की कोई भी कोशिश हो, भारत को उसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार करना चाहिए और फिर उसका जवाब देना चाहिए.
अभी होता यह है कि सरकार हर मामला ढकने की कोशिश करती है. इससे तो चीन का हौसला बढ़ता है. LAC पर इस तरह की हरकतें करने में चीन को कोई बड़ा रिस्क नहीं है और वह भारत पर दबाव बनाने के लिए यह रणनीति अपनाए हुए है. लेकिन यह लो-रिस्क मामला कभी भी हाई-रिस्क में बदल सकता है, जैसा कि गलवान में हुआ था. हिमालय क्षेत्र में किसी भी युद्ध का दायरा वहीं तक नहीं रहेगा, जैसा कि 1962 में हुआ था. इस मामले में हमारे लिए एक समस्या है. यह समस्या है युद्ध क्षेत्र की. जंग का वह इलाका तिब्बत और शिनझियांग से लेकर पूरे उत्तर भारत तक को कवर कर सकता है.
उत्तर भारत के शहर तिब्बत से बमुश्किल 400-500 किलोमीटर की दूरी पर हैं. दूसरी ओर, चोंगकिंग (Chongqing), कुनमिंग (Kunming), चेंगदू (Chengdu) या पेइचिंग (Beijing) जैसे चीन के शहर 1500 से 2500 किलोमीटर तक की दूरी पर हैं. तिब्बत इलाके में भारतीय वायुसेना को चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी एयर फोर्स पर बढ़त हासिल है, लेकिन चीन इस बढ़त को खत्म करने के लिए जोर लगाए हुए है.
अब सवाल यह उभरता है कि क्या एक बार 1962 दोहराया जा सकता है? ऐसा नहीं होगा. एलएसी पर भारत की डिफेंस लाइन काफी मजबूत है और चीन को यह पता है. बड़ा खतरा मिसाइल अटैक का है. अगर यूक्रेन जैसे हालात भी बने तो हमारे रेलवे स्टेशन, एनर्जी ग्रिड और पेट्रोलियम स्टोरेज के ठिकाने तिब्बत से दागी जाने वाली मिसाइलों और ड्रोन के निशाने पर आ सकते हैं. वहीं, भारत के लिए चीन को इसी तरह का नुकसान पहुंचाना काफी मुश्किल होगा. तिब्बत में चीन का जो रोड नेटवर्क है, उसे आसानी से रिपेयर किया जा सकता है, लेकिन हमारी सड़कें हिमालय रीजन में हैं और उन पर आना-जाना आसानी से रोका जा सकता है.
सवाल यह है कि ऐसे हालात में हम क्या कर सकते हैं? भारत के पास यह विकल्प है कि युद्ध होने पर वह उसका दायरा बढ़ा दे. हिंद महासागर से होकर जो जहाज खाने-पीने की चीजें, ईंधन और दूसरा कच्चा माल चीन ले जाते हैं, भारत उनका रास्ता रोक सकता है. लेकिन इसमें कई दूसरी दिक्कतें हैं. इस तरह रास्ता रोकने से चीन के अलावा दूसरे देशों का ट्रैफिक भी फंस सकता है. चीन की नजर भारत के इस विकल्प पर है. इससे निपटने के लिए ही उसने रूस और सेंट्रल एशिया से तेल-गैस का इंतजाम करने में जोर लगाया है.
चीन भी कोई भी बड़ा युद्ध छेड़ने से पहले सौ बार सोचना होगा. उसे खाने-पीने की चीजों से लेकर ईंधन तक का आयात करना पड़ता है. चीन के लिए एक और फैक्टर अहम है. हाल के वर्षों तक चीन ने वन-चाइल्ड पॉलिसी अपना रखी थी. ऐसे में युद्ध में हताहतों का मामला उसके लिए काफी संवेदनशील हो सकता है.
चीन और भारत, दोनों के सामने यह बात आएगी कि जंग के चलते आर्थिक विकास की योजनाओं को बड़ा धक्का लगेगा. युद्ध चीन के लिए एक और मामले में काफी संवेदनशील है. हार होने पर भारत में अधिक से अधिक यह हो सकता है कि यहां सरकार बदल जाए, लेकिन अगर चीन हारा तो कम्युनिस्ट पार्टी का पूरा ढांचा गिर सकता है.
अगर युद्ध से इस तरह के हालात बन सकते हों तो सवाल यह उठता है कि दोनों देश अपना सीमा विवाद किस तरह सुलझा सकते हैं? सीमा विवाद के चलते 1962 में युद्ध हो चुका है. और अब एक बार फिर एलएसी के दोनों ओर सैनिकों का जमावड़ा बढ़ रहा है.
1960 के दशक में दोनों देशों के प्रधानमंत्री सीमा विवाद सुलझाने में खुद जुटे हुए थे. हालांकि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का रुख यह था कि भारत की सीमाएं पूरी तरह से चिन्हित हैं और इस मामले में कोई मोलतोल करने की गुंजाइश नहीं है. उधर, चीनी पक्ष का रुख अलग था. उनका कहना था कि कुछ लेनदेन हो जाए. चीनी कह रहे थे कि अगर भारत यह मान ले कि लद्दाख में अक्साई चिन (Aksai Chin) का इलाका चीन का है, तो चीन यह मान लेगा कि अरुणाचल प्रदेश भारत का है.
1980 और 1990 के दशक में चीनियों ने यह बात दोहराई थी, लेकिन भारत ने उनकी पेशकश ठुकरा दी. उसके बाद से चीनियों ने अपना रुख बदल लिया. वे कहते हैं कि असली समस्या पूरब में है, खासतौर से अरुणाचल में है. उनका कहना है कि वह भारत का कोई दावा तभी मानेगा, जब भारत रियायतें दे. लेकिन किस तरह की रियायतों की उम्मीद की जा रही है, चीन इस बारे में चुप है. माना जाता है कि चीन पूरा तवांग इलाका लेना चाहता है.
साल 2003 में पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने चीनियों के सामने एक प्रस्ताव रखा था. वाजपेयी का कहना था कि दोनों देश सीमा मसले को राजनीतिक लेनदेन के रूप में सुलझा लें और ऐतिहासिक दावों को भूल जाएं. वाजपेयी के प्रिंसिपल सेक्रेटरी और नैशनल सिक्योरिटी एडवाइजर ब्रजेश मिश्र और सीनियर डिप्लोमैट दाई बिंगुओ को इस मामले में दोनों ओर से विशेष प्रतिनिधि बनाया गया था. वाजपेयी सरकार 2004 में चुनाव हार गई, लेकिन दोनों देशों ने काफी तेजी दिखाई और साल 2015 में सीमा मसले के समाधान के लिए दिशानिर्देशक सिद्धांतों के बारे में एक समझौता हो गया.
सीमा के मुद्दे पर भारत और चीन के बीच अब तक का यही एकमात्र समझौता है. इस समझौते की बातें पढ़ने से ऐसा लगता है कि दोनों देश एक-दूसरे के दावों को मानने के लिए तैयार हो रहे थे. यानी भारत अक्साई चिन को चीन का इलाका मान लेता और चीन अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा छोड़ देता. लेकिन सालभर के भीतर ही चीनी अधिकारियों ने यह कहना शुरू कर दिया कि एग्रीमेंट में तवांग को शामिल नहीं किया गया था.
साल 2012 तक विशेष प्रतिनिधियों ने विवाद हल करने की एक रूपरेखा पर काफी काम कर लिया था. लेकिन उसके बाद का मामला पॉलिटिक लीडरशिप से जुड़ा है. असल में क्या पॉलिटिकल बारगेन होना है, इस बारे में राजनीतिक नेतृत्व को ही फैसला करना होता है. इसके लिए राजनीतिक साहस की जरूरत होती है. ऐसा साहस भारत और चीन, दोनों ओर दिखना चाहिए.
भारत के एनएसए अजित डोभाल और चीन के विदेश मंत्री वांग यी अभी विशेष प्रतिनिधि हैं. इन दोनों की मीटिंग 2019 में हुई थी. उसके बाद से भारत-चीन संबंध और खराब ही हुए हैं. 2020 में पूर्वी लद्दाख में हिंसक संघर्ष हुआ और अब तवांग इलाके की घटना हुई है. इससे यह संकेत मिलता है कि भारत-चीन प्रक्रिया में जो राजनीतिक पहलू है, वह कमजोर पड़ रहा है. यह अच्छी बात नहीं है. न्यूक्लियर वॉर का खतरा भी है. ऐसा हुआ तो बहुत तबाही होगी. हमें पहले की तरह सतर्क रहना होगा ताकि हालात काबू से बाहर न होने पाएं.