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क्या हम आज़ाद भारत के ग़ुलाम या झूठे देशभक्त!

पी. चंद |

भारत वर्ष एक बार फिर अपनी आजादी की वर्षगांठ मनाने जा रहा है। 15 अगस्त 1947 को भारत परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त हो गया। तब से लेकर सात दशक बीत गए लेकिन आज जहां हम  रह रहे है क्या ये आज़ादी के परवानों का अभिशिप्त भारत है? जिनके रोम रोम आत्मा में जो भारत बसा करता था? क्या ये सैंकडों , स्वतंत्रता सैनानियों, शहीदों , बलिदानियों, दीवानों का  भारत है ? जो दुर्दम, आतातायी विदेशी आक्रांताओं से आंदोलन करते करते अपना सर्वस्व होम कर गए। जिसपर उनको नाज़ था व भारत माता की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए अपने जीवन की बाज़ी लगा गए।

बंदे मातरम का उदघोष करते , भारत मां की जयकार करते हुए न जाने कितने ही शहीदों ने हंसते हंसते स्वतंत्रता की बलिबेदी पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। लेकिन भारतमाता की गरिमा महिमा पर बट्टा नही लगने दिया। उनके जहन में फांसी का फंदा कालापानी और सभी अमानवीय यातनाएं सब उस मंज़िले मकसूद के सामने तुच्छ थी। परन्तु मिला क्या ? विभाजन की बहुत बडी कीमत चुकाकर 15 अगस्त 1947 को भारत देश ब्रिटानिया हकूमत की राजनीतिक दासता से मुक्त हुआ।

वहीं विभाजन ने देश को कभी न भरने वाले तीखे घाव दिए, लाखों करोड़ों जिन्दगियां तबाह हो गई। इससे भी बड़ा धक्का देशवासियों को उस वक़्त लगा जब उन्होंने देखा और महशुस किया कि स्वतंत्रोतर जो भारत उनका अजीज था उसे मटियामेट किया जा रहा है। देशी साहबो द्वारा पग पग पर अंग्रेजियत का इस्तेकबाल किया जा रहा है।

लगभग एक शताब्दी के सतत संघर्ष एवं बहुमूल्य बलिदानों की बदौलत देश परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त हुआ। कितना ही खून इस क्रांति की भेंट चढ़ाया गया, कितने ही शीश भारत माता को अर्पित किए गए तब जाकर शहीदों के पावन रक्त से अभिशिप्त होकर गुलामी के पाश से भारत भूमि आज़ाद हो पाई। स्वतंत्रता महायज्ञ का प्रारंभ तो सन 1857 में महारानी लक्ष्मीबाई के वीरतापूर्ण बलिदान से ही हो गया था। 19वी शताब्दी के अंतिम दशक में तीन चापेकर भाई व उनके साथी धरती माँ के लिए अपने जीवन की आहुति देकर भारत माँ व अपनी जन्मदात्री को धन्य कर गए।

आज़ादी की साधना का ये यज्ञ निरन्तर चलता रहा। 1905 में बंग-भंग के समय पूर्ण भारत के लाल एक स्वर में अंग्रेजो की "फुट डालो और राज करो " की दुर्नीति के खिलाफ उठ खड़े हुए। कितने देशभक्त फांसी के फंदों पर झूल गए नतीज़तन बंगाल का विभाजन रुक गया। काले पानी की काल कोठरियों में देश के असंख्य जवानों को कठोर यातनाएं देकर मौत के घाट उतारा गया और फांसी पर लटकाया गया।

यह भी निर्विवाद सच है कि आजादी के पथ के पथिकों का एक बड़ा तबका सत्याग्रह एवम अहिंसक मार्ग से महात्मा गांधी के नेतृत्व में आगे बढ़ा और अपने तरीके से देश में आंदोलन खड़ा किया। इस आंदोलन में गांधी जी के योगदान को कभी नही भुलाया जा सकता है। लेकिन यह कहना और मानना की हमें आज़ादी बिना खड़ग बिना ढाल मिल गई उन हुतात्माओं की शहादत का अपमान होगा जिन्होंने राष्ट्र की आज़ादी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और सरफरोशी की तंमना लिए कातिल की बाजुओं का जोर आजमाते हुए शहादत को प्राप्त हुए।  

71 वर्ष की दीर्घावधि में बहुत कुछ हुआ भारत परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त होकर आगे बढ़ा। तैंतीस करोड़ लोगों का भारत आज सवा अरब से पार के मनुष्यों का देश हो गया। 1947 में क्षत विक्षत ही सही आज़ादी तो मिली। धीरे -धीरे वे भी महाप्रयाण करते गए , जिन्होंने स्वतंत्रोतर यज्ञ में अपना सर्वस्व होम किया था। मंज़िले उन्हें मिली जो शरीखे सफर न थे। इस काल में शब्द भी बदले परिभाषाए भी बदली। कहाँ तो अंग्रेजी गोलियों के बीच सहर्ष छलनी करवाते किशोर एवम तरुण भारतीय आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी के स्वर में मिलकर गाते थे-

मुझे तोड़ लेना वनमाली,
         उस पथ पर तुम देना फेंक,
               मातृभूमि हित शीश चढ़ाने ,
                  जिस पथ जाएं वीर अनेक ।

लेकिन आज क्या हम शहीदों की शहादत से इंसाफ कर पा रहे है। क्योंकि एक लड़ाई वह थी जो अंग्रेजी हकूमत से लड़ी गई। लेकिन आज लड़ाई अपने आप से है, आतंकवाद से है, भ्रस्टाचार से है, कुछ नापाक पड़ोसियों से है, साम्प्रदायिकता के खिलाफ है गरीबी से लड़नी है, जातिवाद व गन्दी राजनीति से लड़नी है।