हिमाचल प्रदेश के चाय बागानों की हालत किसी से छिपी नहीं है। जिन बागानों को हिमाचल की थाती के रूप में संभाल कर रखने के लिए नियम बनाए गए, आज उन्हीं नियमों की धज्जियां उड़ाकर उनकी जगह ईंट-कंकरीट के जंगल और दूसरे बिजनेस खड़े कर दिए गए हैं।
ख़ासकर कांगड़ा जिले के चाय बागानों की बात करें तो इनमें से लगभग सभी अपने अस्तीत्व की जंग लड़ रहे हैं। वजह यह है कि चाय बागान मालिकों को अपनी ज़मीन चाय ज्यादा दूसरे कामों के लिए ज्यादा उपयोगी लग रही है। ऐसे में चुनाव से ठीक पहले हिमाचल की वीरभद्र सरकार इस मुद्दे पर कैबिनेट में प्रस्ताव पारित कराने वाली है। हालांकि, राज्य सरकार का यह कदम विवादों में घिरता जा रहा है। ख़बर है कि सरकार के इस पहल का भी विरोध शुरू हो गया है। क्योंकि, इसके पीछे 1972 का सीलिंग एक्ट एक बड़ा कारण है।
दरअसल, जब पूरे हिमाचल में लैंड-रिफॉर्म शुरू हुआ और लैंड होल्डिंग की सीमा 150 बीघे से कम निर्धारित की गई उस दौरान चाय बागानों को इससे मुक्त रखा गया। क्योंकि, देश में कांगड़ा-टी की पहचान को बनाए रखने और इस चाय की खेती को बढ़ावा देने के लिए इसे लैंड रिफॉर्म में विशेष छूट दी गई थी। आज के दौर में चाय बागान के नाम पर बागान-मालिकों के पास काफी जमीनें है। अब सरकार ऐसे नियम बनाने जा रही है जिससे चाय बागानों की जमीनें दूसरे मदों में इस्तमाल की जा सकें।
चुनाव से पहले इस एक्ट को लाने पर सवाल
विधानसभा चुनाव के लिए महज गिनने के लिए दिन बचे हैं। लेकिन, राज्य सरकार इसके ठीक पहले चाय बागानों की खरीद-फरोख्त का प्रस्ताव कैबिनेट से पारित कराने वाली है। सरकार के इस पहल पर कई तरह के राजनीतिक और गैर-राजनीतिक गलियारों से सवाल उठने लगे हैं।
समाचार फर्स्ट के साथ बातचीत में बीजेपी के वरिष्ठ नेता शांता कुमार ने कहा कि जो ज़मीनें सिलिंग एक्ट से बाहर रखीं गईं, वो चाय बागान के लिए थीं। लिहाजा, चाय बागानों के साथ किसी तरह की कोई छेड़छाड़ नहीं होना चाहिए।
शांता के अलावा बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सतपाल सत्ती ने कहा, "हम पहले से चीख रहे हैं कि कांग्रेस भू-माफियाओं की सरकार है और नया प्रस्ताव जो वीरभद्र सरकार ला रही है वह हमारे आरोपों को पुष्ट करता है।" सत्ती ने समाचार फर्स्ट को बताया कि कांगड़ा जिले में ख़ासकर पालमपुर में चाय बागान के मालिकों ने अधिकांश जमीनों को गैर-कानूनी तरीके से बेच दिया है। कहीं कॉलोनी बनी हैं तो कहीं होटल बनाए गए हैं। जिन्होंने वहां ज़मीन खरीदी है या घर खरीदे हैं उनका कानून रजिस्ट्री नहीं हो पा रही है। ऐसे में सरकार भू-माफियाओं को रिलैक्सेशन देने के लिए यह प्रस्ताव ला रही है।
वहीं, वीरभद्र सिंह से नाराज चल रहे मेजर विजय सिंह मनकोटिया ने चुनाव से पहले चाय बागान पर लाए जा रहे प्रस्ताव को 'अंडर द टेबल' का आरोप लगाया। मेजर मनकोटिया ने कहा, " यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इस प्रस्ताव के पीछे असल मक़सद क्या है और सरकार इस मसले पर ठोस कारण क्यों नहीं बता पा रही है।"
मेजर विजय सिंह मनकोटिया ने कहा कि सरकार महज दो-तीन लोगों के लिए इस नियम में फेरबदल कर रही है। लेकिन, सरकार उन नामों को सार्वजनिक करे जिनकी जमीनों के लिए यह प्रस्ताव लाया जा रहा है।
क्यों तूल पकड़ा है यह मामला?
इस मसले को जानने से पहले आप संक्षिप्त में थोड़ा इतिहास जान लें..। हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा-टी 19वीं सदी के मध्य में अस्तीत्व में आई। इस दौरान प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों के 1848 जगहों पर इसका प्रयोग हुआ। जिनमें पालमपुर और धर्मशाला में इसकी खेती बड़े पैमाने पर शुरू हो गई। एक वक़्त में कांगड़ा-टी दुनिया के बाकी चाय के मुकाबले में बेहतर गुणवत्ता में गिनी जाती थी। 1880 से पहले कांगड़ा चाय का व्यापार अफगानिस्तान और मध्य-एशिया के देशों तक होता था। इस बेहतर प्रमाण 1882 में छपे कांगड़ा गजट में मिलता है। कांगड़ा गजट के मुताबिक तत्कालीन समय में देश के बाकी हिस्सों की तुलना में चाय की यह किस्म काफी अच्छी थी।
लेकिन, आजादी के बाद कई अंग्रेज बागवान इसे छोड़कर स्थानीय लोगों के हवाले कर चले गए। आजादी के एक दशक तक तो इसकी पैदावार अच्छी होती रही। लेकिन, बाद में इसकी गुणवत्ता और व्यापार में लगातार गिरावट दर्ज होने लगी। 90 के दशक के बाद कई चाय बागान नष्ट हो गए। 2010 तक तो कई बागानों के जगहों पर ईंट-और कंकरीट के जंगल खड़े हो गए। होटल और रेस्टोरेंट की बाढ़ आ गई।
लेकिन, इनके निर्माण पर एक कानून पेंच फंसा हुआ है। दरअसल, 1972 में लैंड-रिफॉर्म के तहत सिलिंग एक्ट लागू हुआ था। जिसमें यह सुनिश्चित किया गया कि कोई भी शख्स 150 बीघे से ज्यादा ज़मीन का स्वामी नहीं रह सकता। लेकिन, चाय की पैदावार को बढ़ावा देने के लिए चाय बगानों मालिकों को इससे नियम से मुक्त रखा गया। मगर, आगे चलकर चाय बागान मालिकों ने अपने रसूख के दमपर इस नियम की धज्जियां उड़ाई। चाय बागान की आड़ में उन्होंने ज़मीनें बचा लीं और बाद में उनका दूसरे मदों में कॉमर्शिल यूज़ शुरू कर दिया, जो पूरी तरह से गैर-कानूनी था।
एक आंकड़े से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि कैसे चाय बागान खत्म हुए हैं और जमीनों का इस्तेमाल दूसरे बिजनेस उद्देश्य में किया गया है। सीलिंग एक्ट के दौरान हिमाचल में 4 हजार एकड़ में चाय के बागान थे जो अब महज 2200 एकड़ में सिमट गए हैं।