देवभूमि हिमाचल कई तरह की संस्कृतिक, पारंपरिक और मान्यताओं का प्रदेश है। कहा जाता है इस पहाड़ी प्रदेश में हर तीसरे मोड़ पर रहन-सहन, रीति रिवाज के साथ बोली तक बदल जाती है। ऐसे में हिमाचल के अलग अलग हिस्सों में कई तरह रीति रिवाज है जिन्हें यहां के लोग संजो कर रखे हुए हैं। इसी कड़ी में हम बात करने जा रहे हैं होली पर्व… होली पर्व में विशेषकर बैरागी समुदाय के लोगों की परंपरा काफी अलग रहती है।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, बैरागी समुदाय में होली का आयोजन एक दो दिन नहीं बल्कि 40 दिन तक चलता है। वसंत पंचमी में भगवान रघुनाथ के ढालपुर आगमन के बाद से ही कुल्लू की होली का आगाज होता है। इसके बाद लगातार भगवान रघुनाथ के दर पर होली गायन होता है। तब से ही इस समुदाय के लोग होली मनाते हुए गुलाल उड़ाते हैं और होली के गीत गाते हैं। उसके बाद जब होली को आठ दिन शेष रहते हैं तो उस दिन से इस समुदाय की होली में होलाष्ठक शुरू होते हैं।
इसमें इस समुदाय के लोग रघुनाथ को हर दिन गुलाल लगाते हैं और आठवें दिन होली का उत्सव मनाया जाता है। कहा जाता है होली के दिन इस समुदाय के लोग अपने से बड़ों के मुंह और सिर में गुलाल नहीं लगाते, बल्कि वे रिश्तों की मर्यादाओं का सम्मान करते हुए बड़ों के चरणों में गुलाल फेंकते हैं। जबकि उनकी उम्र से बडे़ लोग छोटे व्यक्ति के सिर पर गुलाल फेंक कर आशीर्वाद प्रदान करते हैं। सिर्फ हम उम्र के लोग एक दूसरे के मुंह पर गुलाल लगाते हैं और इस उत्सव को मनाते हैं।
ब्रज की तर्ज पर मनाते हैं होली
इस समुदाय के लोग विशेष होली मनाते हैं उनकी यह होली ब्रज में मनाई जाने वाली होली की तर्ज पर होती है। ब्रज की भाषा में होली के गीत वृंदावन के बाद कुल्लू घाटी में ही गूंजते हैं। परंपरागत इन गीतों को गाते हुए यह समुदाय 40 दिनों तक इस होली उत्सव को मनाता है। होली के इन गीतों को रंगत देने के लिए समुदाय के लोग डफली और झांझ आदि साज का इस्तेमाल करते हैं। इन साजों का प्रयोग भी सिर्फ ब्रज में ही होता है।
बैरागी समुदाय के एकादशी महंत ने एक दैनिक अखबार में बताया है कि हमारे पूर्वज मथुरा वृंदावन अवध से आए हुए हैं। इसलिए इसमें ज्यादा अवध की भाषा में यह गीत ज्यादा गाए जाते हैं। इसके अलावा श्याम सुंदर ने बताया कि ठावा में होली गायन किया गया है। 1653 से लगातार इसका निर्वाहन किया जा रहा है।