ठाकुर वी प्रताप, लेखक
अगर कोई अपराध हो जाए तो पुलिस का क्या धर्म है? आरोपी को पाताल से भी खोज के लाए और उसे जेल में डाले। उसके अपराधों की जांच पड़ताल करे। मजबूत साक्ष्य इकट्ठा करे। साक्षी से बात करे, उसका बयान दर्ज करे। इतनी मजबूत जांच रिपोर्ट बनाए कि आरोपी को क़ानून की किताब में दर्ज सबसे कठोर सजा हो। यही काम है तंत्र का। अगर पुलिस यह सब काम कर रही हो, तो क्या उस पुलिस को लापरवाह या आरोपी को बचाने वाला कहा जा सकता है? जवाब है बिलकुल नहीं।
अगर यह सब करने के बजाय पुलिस अपनी शक्ति और सामर्थ्य राजनीति करने वाले लोगों पर लगाए तो? असली लापरवाह और घटिया आदमी वह है जो पुलिस को काम नहीं करने दे रहा है। अब जिन्हें राजनीति करनी है, वे चाहते हैं कि सिस्टम उनके हिसाब से काम करे। अब वह तो होने से रहा।
सोलन में विवाह प्रस्ताव ठुकराए जाने पर एक युवक ने एक बेटी पर चाकुओं से हमला कर दिया। इस हमले में बिटिया गम्भीर रूप से घायल हो गई। मामले की जानकारी होते ही पुलिस ने बिटिया को ईएसआई अस्पताल में भर्ती करवाया और कई टीमें बनाकर ताबड़तोड़ दबिश देते हुए आरोपी युवक को गिरफ़्तार कर लिया। नियम के हिसाब से उसे कोर्ट में पेश किया गया। जहां पुलिस ने आगे की पड़ताल के लिए आरोपित युवक को दो दिन की रिमांड पर लिया और पड़ताल जारी है।
चूंकि पीड़ित बिटिया अपने मामले में स्वतः साक्षी है और उसका हर ज़ख़्म उस सनकी युवक के वहशीपन की गवाही दे रहा है। डॉक्टर की रिपोर्ट्स साक्ष्य के तौर पर पर्याप्त है, जो उसे क़ानून की किताब की सबसे कड़ी सजा दिलाएगा।
इस सिरफिरे सनकी सड़कछाप मजनूं के इस घटिया कृत्य की जितनी लानत-मलानत की जाए उतनी कम है। इस सिरफिरे को जितनी कठोर से कठोर सजा दी जाए, वह कम है ताकि अगली बार जब कोई ऐसी हरकत करने से पहले सौ बार सोचे। किसी बेटी के ऊपर हाथ उठाने से पहले उसकी रूह काँपे। ऐसे मामलों में कोर्ट को ऐसा पैग़ाम देना चाहिए कि लड़कियां किसी की जागीर नहीं हैं।
डीजेपी नाम से बनाए संगठन के नेता रुमित ठाकुर अब इस मामले में राजनीति पर उतर आए हैं। उनका कहना है कि लड़का अनुसूचित जाति से था और उसने सवर्ण समाज की बेटी पर हमला करते हुए कहा कि मुझे फ्लां जाति से होने के कारण सरकार से कई तरह के लाभ मिलते हैं, तुझे रानी बनाकर रखूंगा, मुझसे शादी कर ले।
एक तरफ़ लोग जहां उस पीड़ित बेटी के लिए अपार दुःख प्रकट कर रहे हैं, दूसरी ओर रुमित की बातों पर हंस रहे हैं, साथ ही उन्हें कोस रहे हैं। एक फ़ेसबुक लाइव में रुमित ना जाने क्या-क्या कह रहे हैं। उनका कहना है पुलिस कार्रवाई नहीं कर रही है। घटना के दिन ही आरोपित युवक को पुलिस ने अरेस्ट किया और अगले दिन कोर्ट में पेश कर पुलिस कस्टडी रिमांड भी ले ली और अब सबूत इकट्टे कर रही है। इससे ज़्यादा पुलिस और सिस्टम क्या कर सकता है? क्या पुलिस ही उस युवक को फाँसी पर चढ़ा दे? या उसे भीड़ के हाथों सौंप दे कि भीड़ उसका इंसाफ़ कर दे।
देश क़ानून से चलता है निजी भावना से नहीं
क्या पुलिस ही उस युवक को फांसी पर चढ़ा दे? या उसे भीड़ के हाथों सौंप दे कि भीड़ उसका इंसाफ़ कर दे। यह काम पुलिस का है नहीं। कोई भी देश निजी-भावनाओं से नहीं क़ानून से चलता है। आप यक़ीन मानिए जिस देश में क़ानून नहीं रहे, वह देश भी नहीं रहे। ना तो भारत जैसे देश में कुंठित लोगों की मनोदशा के हिसाब से न्याय प्रक्रिया अपना काम कर सकती है और ना ही यह देश मॉब जस्टिस मेंटैलिटी के साथ खड़ा हो सकता है।
राजनीति की फसल के लिए नफ़रत के बीज मत बोइए
अक्सर लोग कहते हैं कि राजनीति गंदी चीज़ है। काजल की कोठरी है। मुमकिन है; कहनें वाले लोग सही हों। लेकिन राजनीति को लाशों का व्यापार नहीं बनाना चाहिए। युगों से साथ आ रहे लोगों के बीच ऐसी खाई ना खोदी जाए जिसमें आने वाली नस्लें डूब जाएं।
राजनीति लाख बुरी हो लेकिन इतना तय है नेता वही है, जो दो खाइयों के बीच पुल बांधे। जो जोड़ता है, न कि तोड़ता है। अपनी राजनीति की फसल काटने की लालसा में नफ़रत के बीज नहीं बोने चाहिए। जो ऐसा कर रहे हैं, उन्हें यह याद होना चाहिए कि जब बस्ती में आग लगती है तो वह आग लगाने वाले के घर पर रहम नहीं करती।
NOTE: ये लेखक के निजी विचार हैं। लेखक से [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।