हिमाचल

ज्वालामुखी मंदिर में गुप्त नवरात्र आरंभ, 8 दिन तक विशेष पूजा-पाठ

Gupt Navratri at Jwalamukhi Temple: हिमाचल प्रदेश के विश्वविख्यात ज्वालामुखी मंदिर में गुरुवार से माघ मास के गुप्त नवरात्र आरंभ हो गए, जो 7 फरवरी तक चलेंगे। मंदिर न्यास व पुजारी महासभा प्रधान अविनेद्र शर्मा ने बताया कि गुप्त नवरात्रों में प्राचीन परंपराओं को निभाते हुए जप, पाठ और अनुष्ठान किए जाते हैं, जो विश्व कल्याण, सुख-शांति और समृद्धि के लिए समर्पित होते हैं। हिंदू धर्म में नवरात्र मां दुर्गा की साधना का विशेष काल माना जाता है, और गुप्त नवरात्र तंत्र साधना के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं।

इस अवसर पर विधायक संजय रत्न, मंदिर अधिकारी मनोहर लाल शर्मा, डीएसपी आरपी जसवाल, मंदिर न्यास सदस्य, अतिरिक्त उपमंडलाधिकारी अंशुल चंदेल और पुजारी वर्ग ने विधिवत पूजा-अर्चना कर नवरात्रों का शुभारंभ किया।

पुजारी सभा प्रधान अविनेद्र शर्मा ने विधायक संजय रत्न से संकल्प, विधिवत पूजा-अर्चना और कन्या पूजन करवाया। इस दौरान पुजारी वर्ग व विद्वान पंडितों ने माता के जप-पाठ का संकल्प लिया, जिसमें 8 दिनों तक विश्व शांति और कल्याण के लिए विशेष मंत्र जाप किए जाएंगे। गुप्त नवरात्रों के दौरान मां ज्वाला के मूल मंत्र, बटुक भैरव, गणपति, गायत्री और अन्य जप व पाठ किए जाएंगे।

माघ मास और आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष में आने वाले इन गुप्त नवरात्रों के बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी होती है। इस अवसर पर विधायक संजय रत्न ने प्रदेशवासियों को शुभकामनाएं दीं और पूरे विश्व के सुख-समृद्धि व कल्याण की कामना की।

 

ज्वालामुखी मंदिर में सदियों से नौ ज्योत जल रही हैं। इन ज्योतियों का सोर्स आज तक पता नहीं चला है। मुगल सम्राट अकबर ने भी यहां की अखंड ज्योतियों को बुझाने की कोशिश की, लेकिन नहीं बुझा पाया। उसके मन में श्रद्धा जागी। अकबर ने देवी को सोने का छत्र चढ़ाया, लेकिन वो किसी और धातु में बदल गया। छत्र किस धातु में बदला, ये आज तक पता नहीं चल पाया।


मंदिर का पौराणिक महत्व


पौराणिक कथाओं के मुताबिक, यहां देवी सती की जीभ गिरी थी। बाद में कांगड़ा की पहाड़ी पर ज्योति रूप में देवी प्रकट हुईं। सबसे पहले मां के दर्शन यहां पशु चरा रहे ग्वालों ने किए थे। तब से आज तक ये ज्योति जल रही है।

 

यहां 100 साल पहले तक थी पंचबलि की परंपरा


करीब 100 साल पहले तक ज्वाला देवी में पंचबलि की परंपरा थी। इनमें भेड़, भैंसे, बकरे, मछली और कबूतर की बलि दी जाती थी, लेकिन बाद में ये प्रथा बंद कर दी गई। अब इनकी जगह पीले चावल और उड़द की वड़ी का भोग लगाया जाता है। ऊपर दिख रही ज्योत ही सबसे पहले प्रकट हुई थी। इसी ज्योत को ज्वाला देवी कहा जाता है। ऊपर दिख रही ज्योत ही सबसे पहले प्रकट हुई थी। इसी ज्योत को ज्वाला देवी कहा जाता है।

अखंड ज्योत का सोर्स जानने के लिए कई बार हुई हैं रिसर्च


सदियों से जल रही अखंड ज्योत कौन सी गैस से जल रही हैं और इसका सोर्स क्या है, ये जानने के लिए जापान समेत कई देशों से मशीनें लाई गईं, लेकिन आज तक इसका सोर्स पता नहीं चला है। रिसर्च फेल होने के बाद वैज्ञानिक अपनी मशीनें यहीं छोड़ गए, जो आज भी यहां के जंगलों में पड़ी हैं।

1835 में राजा संसार चंद और महाराजा रणजीत सिंह ने करवाया था मंदिर निर्माण


सतयुग में माता ज्वाला जी के पहले मंदिर का निर्माण राजा भूमिचंद ने करवाया था। इसके बाद 1835 में कांगड़ा के तत्कालीन राजा संसार चंद और महाराजा रणजीत सिंह ने करवाया था।

ज्योतियों को छूने पर नहीं जलता है हाथ


मंदिर में जल रही ज्योतियों की एक खास बात ये है कि इन ज्योतियों को छूने पर हमारा हाथ नहीं जलता है। यहां आने वाले मां की ज्योतियों को छूते हैं और यहां माथा टेकते हैं।

अकबर के चढ़ाए हुए छत्र की धातु जानने के लिए भी हुई हैं रिसर्च


अकबर ने अखंड ज्वाला को जांचने की कोशिश की और उसे बुझाने के लिए नहर का पानी ज्योत की ओर छोड़ दिया। इसके बाद भी अखंड ज्योत जलती रही और पानी पर तैरने लगीं। ये चमत्कार देख अकबर के मन में देवी के लिए श्रद्धा जागी। श्रद्धा जागी तो अकबर नंगे पैर देवी मंदिर आया और सोने का एक छत्र चढ़ाया। कहा जाता है कि अकबर ने सोने का छत्र चढ़ाया तो उसे इस बात का घमंड हो गया था, इसलिए देवी ने वो छत्र स्वीकार ही नहीं किया। चमत्कार से ये छत्र किसी और ही धातु में बदल गया। तब से अब तक छत्र की धातु जानने के लिए भी कई रिसर्च हुईं, लेकिन ये तय नहीं हो पाया कि छत्र में लगा सोना ही है या कोई और धातु।आज भी ज्वालाजी मंदिर में वो गोरख टिब्बी मौजूद हैं, जहां सुलगता हुआ धूप दिखाने पर मां पानी पर दर्शन देती हैं।

Akhilesh Mahajan

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