<p>जिस कांगड़ा चाय की धमक किसी वक्त विदेशों तक रहती थी आज वही कांगड़ा चाय कुछ घरों तक ही सीमित रह गई है। हैरानी की बात तो यह है कि दो हजार हेक्टेयर में होने वाली चाय का उत्पादन अब मात्र एक हजार हेक्टयर से भी कब में सिमट गया है।</p>
<p>जिला वाइज बात करे तो मंडी में 200 हेक्टेयर चंबा में 6 हेक्टेयर और जिला कांगड़ा में 800 से 900 हेक्टेयर रह गई है। पिछले कुछ सालों के आंकड़ों पर गौर करें तो 2013 में आठ लाख 70 हजार किलोग्राम, 2014 में आठ लाख 42 हजार किलोग्राम 2015 में आठ लाख 91 हजार किलोग्राम, 2016 में 8 लाख 7 हजार किलोग्राम चाय उत्पादन हुआ। 2010 से पहले यह उत्पादन दस लाख किलोग्राम से ऊपर से रहता था।</p>
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<p>अकेले पालमपुर शहर में ही तीन लाख से अधिक किलोग्राम चाय का उत्पादन होता था। लेकिन अब जमीन और चाय उत्पादन के प्रति कब होते रुझान कुछ घरों तक ही सिमट रहा गया है। चाय विकास बोर्ड भारत के अधिकारियों की मानें तो चाय को बढ़ावा देने के लिए प्रयास तो किए जा रहे हैं लेकिन घरों में चाय का उत्पादन छोटे स्तर पर होने के कारण लोगों में इसके प्रति रुझान कम हो रहा है। इसके पीछे कारण खेती के लिए तकनीकों से दूरी भी है।</p>
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<p>हिमालय जैव संपदा प्रौद्योगिकी संस्थान (आईएचबीटी) ने उजड़ रहे चाय बगानों के लिए बागवानों को सुदृढ़ करने के लिए पालमपुर में आधुनिक तकनीकों से चाय उत्पादन करने के लिए प्रशिक्षण दिया जा रहा है। संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डॉक्टर सूद किसानों को चाय के बगीचों को सुदृढ़ करने के तरीके आधुनिक मशीनरी के जरिए बता रहे हैं। इसके लिए किसानों को उजड़े चाय बागानों का विकास, चाय बागानों के मशीनीकरण एवं औषधीय और सगंध पौधों की खेती पर जागरूक किया गया। उन्होंने किसानों को बताया कि मशीनीकरण से चाय बागानों को उभारा जा सकता है।</p>
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