कहते है नियति के फैसले को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए, पर मानव मन इतना समझदार कहाँ। ऊमा और रमा दोनों बहनें थी। हमारे यहाँ परिवारों में प्रायः पुत्र आगमन की विशेष इच्छा होती है। जब लड़कियाँ हुई तो परिवार और रिश्तेदारों को लड़के की कमी महसूस हुई। थोड़ी उदासी भी जाहिर हुई, पर भगवान के निर्णय भविष्य के धरातल पर सृजित होते है। नियति के निर्णय के साथ तो चलना ही था,
समय के साथ-साथ ऊमा और रमा उच्च शिक्षा की ओर आगे बढ़ती चली गई। ईश्वर की कृपा से वे दोनों कुछ-कुछ विशेष कौशल से भी पूर्ण थी। जिससे वे दोनों समाज में एक प्रतिष्ठित नाम प्राप्त कर पाई। बहन अपने भाई से पिता समान संरक्षण एवं प्रेम प्राप्त करना चाहती है। ऊमा ने रमा के प्रति प्रेम, संरक्षण, जिम्मेदारी निर्वहन एवं प्यार-दुलार में कहीं न्यूनता नहीं होने दी। उसके होस्टल एडमीशन में एक बड़े भाई की तरह वह खड़ी होती थी।
कैरियर और उसके पश्चात् विवाह की व्यवस्थाओं से लेकर उसकी छोटी से छोटी जरूरतों का ध्यान रखते हुए ऊमा सदैव बड़े भाई का दायित्व निभाती गई। ऊमा हर तरीके से अपनी छोटी बहन और परिवार के प्रति उत्तरदायित्व में खरी उतरी। परिवार के लिए हर प्रकार की व्यवस्था जुटाने में वह तत्पर रही। रमा को कभी भी भाई की कमी महसूस ही नहीं होने दी। लड़ाई-झगडे, नोक-झोंक और प्यार-दुलार भी दोनों बहनों की यादों का अहम हिस्सा था।
हालांकि ऊमा को इस दायित्व को निभाने में कई बार अनवरत संघर्षों से भी जूझना पड़ा, पर ऊमा परिस्थितियों के अनुरूप निर्णय लेती गई और भाई के दायित्व को पूर्ण निष्ठा एवं ईमानदारी से निभाती गई। ऊमा के इस अहम दायित्व की वजह से आज रमा एक कुशल जीवन व्यतीत कर रही थी। परिवार और रिश्तेदार भी अब नियति के निर्णय की सार्थकता को समझ चुके थे।
हमनें यह तो बहुत सुना है कि जो मन का हो वो अच्छा और जो मन का न हो वह बहुत अच्छा। ईश्वर का चयन सदैव हमारी परिस्थितियों के अनुरूप होता है। वह स्वयं ही पालनहार है तो उसकी चिंता तो सर्वाधिक है। यदि मन में ध्येय हो तो एक लड़की भी भाई के कर्तव्य को पूर्ण निष्ठा से निभा सकती है। भाई की भूमिका में भाई के मनोभावों को समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है और वह तो एक लड़की भी बखूबी समझ सकती है।
समाज को लिंग भेद से ऊपर उठकर सोचना होगा। संकीर्ण सोच से हम समाज की यथोचित उन्नति नहीं कर सकते। भाई-बहन का रिश्ता समर्पण और समझदारी से अटूट बनता है, इसलिए रिश्ते की गहराई को समझने का प्रयास करें और कर्त्तव्य निर्वहन में केवल समर्पण और भावनाओं को प्राथमिकता दे। भाई-बहन का स्नेह केवल भावनाओं के बंधन से प्रगाढ़ होता है। हमारा सनातन धर्म इन त्यौहारों के माध्यम से रिश्तों की प्रगाढ़ता को वृहद करने की ओर संकेत करता है।
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