<p><span style=”color:#c0392b”><em><strong>“निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन, कि जहाँ</strong></em><br />
<em><strong>चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले</strong></em><br />
<em><strong>जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले</strong></em><br />
<em><strong>नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले”</strong></em></span></p>
<p>वर्तमान मे हिमाचल प्रदेश में ऐसी घटनाएं आम हैं। अभी हाल में ‘IN हिमाचल’ नाम के एक वेब-पोर्टल को लीगल नोटिस थमा दिया गया। नोटिस थमाने के पीछे कारण बस इतना है कि वेब पोर्टल ने प्रदेश के वन मंत्री ठाकुर सिंह भरमौरी को उनके कर्तव्यों का हवाला देकर उनकी आलोचना कर दी। इस आलोचना को मंत्री महोदय ने निजी छवि पर अटैक माना और पोर्टल को लीगल नोटिस भेज दिया। जाहिर तौर पर इशारा साफ है कि सरकार की आलोचना किसी भी सूरत में मान्य नहीं है। बतौर एक जिम्मेदार पत्रकार होने के नाते मैंने भी ‘इन हिमाचल’ में छपे उस लेख को पढ़ा और एक-एक शब्दों की बारीकी से पड़ताल की। यकीन, मानिए मुझे इसमें कोई भी शब्द या वाक्य ऐसा नहीं लगा जो वन मंत्री की छवि को नुकसान पहुंचाता हो। हां, आर्टिकल में जनता के प्रति उनके काम करने के तरीके की पुरजोर मुख़ालफत की गई है और हर मीडियाकर्मी इसके लिए स्वंतत्र भी है।</p>
<p>अगर तत्काल परिस्थितियों पर गौर करें तो वाजिब तौर पर वन मंत्री ठाकुर सिंह भरमौरी कई मामलों में आलोचना के पात्र हैं। क्योंकि,</p>
<ul>
<li>मंडी में एक वन रक्षक की संदिग्ध लाश बरामद होती है। बाद में पुलिस इसे आत्महत्या बताती है। क्या मीडिया इस पर सवाल नहीं खड़े कर सकता? गौर कीजिए 2002 के दंगों में मीडिया ने ही खोद के सवाल निकाले थे तब जाकर कई मामलों में ट्रायल बहाल हुए। याद कीजिए जेसिका लाल मर्डर केस…जब मीडिया ने तफ्तीश की और पुलिसिया रिपोर्ट पर सवाल खड़े किए तब कोर्ट को भी स्वत: संज्ञान लेना पड़ा और रिजल्ट आपको पता ही है। मामले के दोनों दोषी आज जेल में उम्रकैद की सजा काट रहे हैं। अगर मीडिया सवाल नहीं खड़े किए होते तो फर्ज कीजिए क्या दिल्ली गैंगरेप की पीड़िता (मृतक) निर्भया को न्याया मिल पाता?</li>
<li>भरमौरी जी के मंत्री रहते हुए कई वन अधिकारियों और कर्मचारियों पर वन माफियाओं ने खुलेआम हमला बोला और आज तक कोई कर्रवाई नहीं हो पाई। ऐसे में अगर मीडिया उनसे सवाल पूछती है तो क्या गुनाह करती है?</li>
<li>मंडी में गार्ड की मिली संदिग्ध लाश वाले प्रकरण में वन मंत्री एक बार भी मीडिया से मुख़ातिब नहीं हुए और ना ही अपना पक्ष रखा। मीडिया और विपक्ष के द्वारा खड़े किए जा रहे सवालों पर पक्ष जानने के लिए समाचार फर्स्ट ने खुद कई बार मंत्री महोदय से संपर्क करने की कोशिश की। लेकिन, हमारी टीम हर बार नाकाम रही।</li>
</ul>
<p>कुल मिलाकर अगर कोई जन प्रतिनिधि खास कर किसी प्रदेश की कैबिनेट का हिस्सा है तो उसकी जवाबदेही तो और बढ़ जाती है। याद कीजिए इसी देश में एक वक़्त था जब एक रेल हादसा होने पर तत्कालीन रेलमंत्री ने इस्तीफा दे दिया था। आज के दौर में नेताओं की सत्ता लोलुपता को किसी कवि ने अपने शब्दों से करारा प्रहार किया है,</p>
<p><span style=”color:#c0392b”><em><strong>”कुर्सी है तुम्हारा ये जनाज़ा तो नहीं है</strong></em><br />
<em><strong>कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते”</strong></em></span></p>
<p>हालांकि, यह मसला सिर्फ हिमाचल प्रदेश का नहीं है। पूरे हिंदुस्तान में फासीवादी मानसिकता की लहर चल रही है। बंगाल, बिहार, यूपी, मध्य प्रदेश या फिर हिमाचल सभी जगह सत्ता में बैठे लोग और उनके सिपहसलारों की तूती बोल रही है। मीडिया इनका आसान टारगेट है। मीडिया को या तो चॉकलेट (विज्ञापन) खिलाकर मनाने की कोशिश की जाती है। अगर, कोई नहीं मानता तो प्रतिरोध को विरोध की शक्ल दे दी जाती है और तमाम तरह के प्रतिबंध थोप दिए जाते हैं। ऐसे में बेचारा पत्रकार का हौसला पस्त हो जाता है और फिर वह अपने परिवार का चेहरा देख दो जून की रोटी के जुगाड़ में जुट जाता है।</p>
<p>बतौर <strong>समाचार फर्स्ट</strong> के संपादक होने के नाते मुझे भी राडार पर ले लिया गया था। मेरा गुनाह बस इतना था कि मैंने मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह से मेरिट के आधार पर कुछ कड़वे प्रश्न पूछ लिए थे। तब भी मैंने इस पहल का लोकतांत्रिक तरीके से पुरजोर विरोध किया था। लेकिन देश के राजनेताओं को भी भलिभांति समझ लेना चाहिए कि अब मीडिया का भी दौर बदल चुका है। मीडिया सिर्फ अखबारों और टीवी तथा रेडियो तक सीमित नहीं है। आज के दौर में पोर्टल और ब्लॉग लोगों की मजबूत आवाज बनकर उभरे हैं।</p>
<p>हमारा भारतीय संविधान <strong>‘फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन’</strong> की गारंटी देता है और बेबाक होकर उसका एक्सरसाइज करना हर मीडियाकर्मी का धर्म है। ऐसे वक़्त में जब मीडिया को चाटुकार बनाकर पट्टा बांध दिया जाता है वक़्त है कि जिनकों पत्रकारिता की ललक है वे अपने सिर पर कफन बांध लें और लिखना जारी रखें। जिनके भीतर पत्रकारिता का उसूल जिंदा है उनकी आवाज़ बुलंद होनी चाहिए। वर्ना जर्मनी का <strong>मार्टिन नीमोइलर </strong>हमारी आंखे खोलने के लिए काफी है। नीमोइलर एक जर्मन नागरिक थे और दूसरे विश्व युद्ध के शुरुआत में उनकी सोच यहूदी विरोधी थी। जब हिटलर के नाजीवाद का यहूदियों के खिलाफ क्रूर दौर चला… तब नीमोइलर ने पाया कि हिटलर की क्रूरता सिर्फ यहूदियों तक सीमित नहीं थी बल्कि उन सभी के खिलाफ थी जो उसके विचारों से इत्तेफाक नहीं रखते थे। आख़िर में मार्टिन नीमोइलर ने जर्मनी में अपने कैद के दौरान लिखा था,</p>
<p><span style=”color:#c0392b”><em><strong>वे पहले यहूदियों को मारने आए<br />
और मैं चुप रहा क्योंकि मैं यहूदी नहीं था।<br />
फिर वे कम्युनिस्टों को मारने आए<br />
और मैं चुप रहा क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था।<br />
फिर वे श्रमिकसंघियों को मारने आए<br />
और मैं चुप रहा क्योंकि मैं श्रमिकसंघी नहीं था।<br />
फिर वे मुझे मारने आए<br />
और मेरे लिए बोलने वाला कोई रह नहीं गया था।।</strong></em></span></p>
<p>ऐसे में किसी भी मीडिया संस्थान को प्रताड़ित करना सिर्फ एक आइडेंटिटी तक सिमित नहीं है, बल्कि इसका सरोकार हम सभी से है। यहां तक कि हर नागरिक से है। आवाज एक सुर में उठाना अब लाजमी है। अपनी बात महान क्रांतिकारी शायर फ़ैज अहमद फ़ैज से खत्म करना चाहूंगा….</p>
<p><span style=”color:#c0392b”><em><strong>बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे</strong></em><br />
<em><strong>बोल ज़बाँ अब तक तेरी है</strong></em><br />
<em><strong>तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा</strong></em><br />
<em><strong>बोल कि जाँ अब तक तेरी है।।</strong></em></span></p>
<p><strong><em>(उपरोक्त लेख समाचार फर्स्ट के Editor-in-chief अमृत कुमार तिवारी के व्यक्तिगत विचार हैं…) </em></strong></p>
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