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वीरभद्र यानी वीर भी, भद्र भी : तरुण श्रीधर

<p><span style=”color:#3498db”><strong>तरुण श्रीधर , IAS</strong></span><br />
<span style=”color:#1abc9c”>( हिमाचल प्रदेश के पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव और पूर्व सचिव , भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा दैनिक जागरण समाचार पत्र में 9 जुलाई 2021 को छापा गया यह लेख समाचार फर्स्ट अपने पाठकों के लिए पेश करता है )</span></p>

<p>&#39;मेरी मृत्यु पर शोक की बजाय मेरे जीवन का जश्न मनाओ। &#39;यही कह रहे हैं इस समय अपनी नई दुनिया से वीरभद्र सिंह, मुस्कुराते हुए अपने लाखों चाहने वालों को। अनुकंपा, संवेदना और विशाल हृदय वाले वीरभद्र सिंह की मुस्कुराहट जो हर किसी को मंत्रमुग्ध कर दे; और इस भोली मुस्कुराहट के साथ जब एक मजाकिया टिप्पणी का वार होता, तो गर्म और आक्रोशित माहौल में यकायक शांति छाती और व्यवस्था बनती। जश्न एक भरपूर जीवन का, उन सबके लिए भी जो उनके संपर्क में रहे। आज हर एक शख्स यह दावा कर रहा है कि वह वीरभद्र के करीब रहा; और अचंभा कि हर आदमी दिल से ऐसा मानता है। सबके पास उनके साथ घनिष्ठता साबित करने के लिए तस्वीर भी है। यह एक अनूठा आकर्षण और प्रतिभा थी उनके व्यक्तित्व में।</p>

<p>क्या पुन: कोई वीरभद्र होगा, या उन जैसा भी ऐसा कोई? सृष्टि ने ऐसे इंसान बनाने शायद बंद कर दिए हैं। क्या राजा इसलिए कहलाते थे कि राज परिवार में पैदा हुए? न होते तब भी यकीनन राजा का ही संबोधन मिलता। क्योंकि वह एक रंक को भी राजा सा सम्मान देते थे। कोई व्यक्ति, विशेष रूप से गरीब या असहाय, यह नहीं कह सकता कि उसने मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह से मिलना चाहा, पर भेंट नहीं हुई। हमें अक्सर यह समझाते कि दूरदराज से व्यक्ति मजबूरी के तहत मिलने आते हैं, शौकिया नहीं। ईश्वर ने यह अवसर, अधिकार और कर्तव्य सौंपा है कि उनकी सहायता की जाए, अत: इस जिम्मेदारी का निर्वहन पूरी ईमानदारी से करना चाहिए, &#39;और इस पर कोताही तो मैं खुद की भी बर्दाश्त नहीं करूंगा।</p>

<p>1994-95 की बात है, पालमपुर में गद्दी समुदाय का एक विशाल सम्मेलन था। मुख्यमंत्री आदत के अनुसार समय पर सम्मेलन स्थल पर पहुंच गए। गद्दी समुदाय के हजारों प्रतिभागी सम्मेलन में अपेक्षित थे पर मौके से सब गायब। सब महानुभाव भव्य स्वागत के चक्कर में हो गए लेट और मुख्यमंत्री के पहुंचने के 10-15 मिनट बाद अपनी पारंपरिक वेश-भूषा में और वाद्य यंत्रों के साथ नाचते हुए आए। मुख्यमंत्री की अवमानना है यह तो। ऐसी डांट पड़ी कि सब की सिट्टी-पिट्टी गुम। इस डांट के बाद पड़ी प्यार की डांट, &#39;संगीत और नाचना बंद क्यों किया? और फिर सब के साथ नाचने लगे।</p>

<p>दिमाग के साथ दिल से भी सोचते थे इसीलिए लोगों के दिलों पर राज किया। राजनीतिज्ञ बदनाम हैं एक दूसरे की टांग खींचने की प्रवृति के कारण। पर जब वह टांग खींचते थे तो मजा इसलिए आता क्योंकि अंदाज सौम्य और सभ्य रहता। प्रशासनिक मुद्दों पर बैठकों में कभी असहमति भी हो जाती। चर्च के बाद निर्णय लेते समय निष्कपट लेकिन शरारती आंखों से मेरी ओर इशारा करते कहते, &#39;बड़े साहब से पूछो, जैसा वह कहेंगे वैसा ही करेंगे। अब बैठक में उपस्थित अधिकारियों की हंसी के बीच मैं आंखें नीची करने लायक ही रह जाता, और एकमात्र चारा होता कि बात मानी जाए। काम लेने की कला शानदार; विश्वास हासिल करने का गुण बेजोड़। जटिल से जटिल परिस्थिति में भी कार्यालय में कैसे तनावमुक्त वातावरण बनाया जा सकता है, यह वीरभद्र ही जानते थे। राजस्व विभाग से जुड़े कई पेचीदा और कई विवादास्पद मामले उनके साथ निपटाए। जब कोई अन्य मंत्री या अधिकारी मौजूद होता, तो प्रशंसा करते और मेरे अहं पर मनोवैज्ञानिक वार। &#39;आपके अलावा कोई और इस समस्या का हल कर सकता है तो वह है टोडर मल। ऐसी उपमा सुन कर कौन हल न निकलो? जब अकेले में बात करनी हो, तो पहले एक व्यापक हलचल। स्टाफ को कड़ा आदेश, &#39;लाल बत्ती जला दीजिए; कोई अंदर नहीं आएगा, चाहे वह मंत्री ही क्यों न हो। कॉफी का ऑर्डर और अपनी कुर्सी से उठकर साइड के छोटे सोफे पर साथ बिठाना, कंधे पर हाथ और फिर सरकारी बात। जब व्यक्ति इतना महत्व मिले तो वह क्या न करे?</p>

<p>बेमिसाल योद्धा थे वीरभद्र सिंह; बहादुर भी और चतुर भी। कभी कमजोर पड़ते या पीछे हटते नहीं देखा, शत्रु के कड़े प्रहार पर भी रक्षात्मक होना गवारा नहीं था। उनका जवाबी प्रहार आक्रामक और घातक होता था। चतुरता थी तो दूसरी रणनीति भी अपना लेते थे। आंख में आंख डाल हल्का सा मुस्कुरा कर विरोधी को भ्रमित कर देते। न चाहते हुए भी इनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी इसे स्वीकारेंगे कि खेल में गोल हमेशा वीरभद्र ने ही किया, या फिर ऐसी चाल चली कि विरोधी ने अपने ही विरुद्ध गोल कर दिया।</p>

<p>अधिकारी अक्सर उनके रौब और ग़ुस्से, जो कई बार तो मात्र कूटनीति होता था, से डर जाते थे और अपना पक्ष रखने की बजाय हां में हां मिलाते रहते। अनेक राजनीतिक लोगों के साथ रहे मेरे प्रशासनिक अनुभव के आधार पर मैं दावे से कह सकता हूं कि वीरभद्र में &#39;ना&#39; सुनने की जो क्षमता थी वह बेहद कम नेताओं में है। अब तो यह गुण गायब ही है। काश अधिकारियों में भी अभिव्यक्ति का साहस होता। हर फाइल को ध्यान से पढ़ कर विवेकपूर्ण निर्णय लेना पहचान थी उनकी।</p>

<p>प्रशासनिक अधिकारियों के स्थानांतरण के प्रस्ताव पर चर्चा होती, तो हम इन प्रश्नों के लिए तैयार रहते थे – पत्नी/पति नौकरी में हैं तो कहां नियुक्त हैं? एक ही स्थान पर या पास नहीं रखा जा सकता? बच्चे किस कक्षा में पढ़ते हैं? उनकी शिक्षा तो बाधित नहीं होगी? कई में रोष भी पनपा होगा लेकिन यह तय है कि एक मुख्यमंत्री था जो उनके परिवारतक की चिंता करता था।</p>

<p>शिष्टता का अतुलनीय उदाहरण है वीरभद्र सिंह। बेटी के विवाह के दिन सीबीआई ने घर की तलाशी का अवसर चुना। बैठक और लॉन में अतिथि और अंदर सीबीआई। कन्या के पिता ने हर एक मेहमान का मुस्कुरा कर स्वागत किया और किसी को यह आभास नहीं होने दिया कि कहीं कुछ गड़बड़ी है। मेरी पत्नी जो सुयोग से उस दिन शिमला आई थीं, उन्हें विशेष रूप से आमंत्रित किया, और चूंकि देर बाद मिल रहे थे अतिरिक्त समय दिया। ऐसा स्नेह और सम्मान! सैकड़ों लोगों के सामने, मंडी महाशिवरात्रि पर्व की शोभायात्रा के समय मुख्यमंत्री ने अपने हाथों से मुझे पगड़ी बांधी थी। इस एक भाव से मिला सम्मान और पहचान बेजोड़ है। यह व्यंग्य भी याद है, &#39; डीसी को खुश रखना होता है इसलिए पगड़ी पहना रहा हूं।&#39; मैंने भी उनके साथ मजाक करना शुरू कर दिया था, &#39; सर हम बैचमेट हैं; जब मैं आईएएस में आया आप मुख्यमंत्री थे, और अब मैं सेवानिवृत्ति के करीब हूं तो तो आप मुख्यमंत्री हैं। छह बार मुख्यमंत्री बने; छल कपट, चालबाजी या सौदेबाजी से नहीं, सिर्फ लोकप्रियता के कारण। यह अपने आप में एक लंबी कहानी है…फिर सही।<br />
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