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लुप्त होती हिमाचल की लोकनाट्य मनोरंजक संस्कृति

समाचार फर्स्ट |

हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक पहचान  हमारे दुर्लभ लोकनाट्य जो पुराने समय से लेकर भरपूर मनोरंजन के साधन हुआ करते थे, आधुनिकता की चकाचौंध में ये लुप्त होने की कगार में पहुंच रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में लोक नाट्यों की परंपरा बहुत प्राचीन है।

पहाड़ी प्रदेश हिमाचल में करियाला, बाठड़ा, भगत, धाज्जा, बुढ़डा, हरनातर, रास, बलराज, दयोठन आदि ऐसे लोक नाट्य हैं, जिनके भीतर हिमाचल प्रदेश के किसी न किसी जिला की संस्कृति सभ्यता की झलक  देखने को मिलती हैं। लोकनाट्यों की इस परंपरा में लोकनाट्य करियाला भी अपनी पहचान रखता है। हिमाचल प्रदेश के जिला सोलन, शिमला और सिरमौर में करियाला लोकनाटय मनोरंजन का सबसे बढ़िया साधन रहा है। इन जनपदों में करियाला कब अस्तित्व में आया होगा, ये तो प्रश्न  शोध का विषय है। लेकिन जनश्रुतियों, दंतकथाओं व किंवदंतियों के आधार पर करियाले का आरंभ दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के आसपास से माना जाता है।

करियाला के आरंभ के पीछे देव जुणग, देव शिरगुल और देव विज्जयां बिजट या बज्रेश्वर देव के साथ दंतकथाएं जुड़ी हैं। सोलन जनपद के अर्की क्षेत्र में करियाले के पीछे दानव देव (सहस्त्रबाहु) और परशुराम युद्ध के कथानक आज भी सुनने को मिलते हैं। एक लोक कथा के आधार पर शिमला के क्षेत्र में देव शिरगुल के अत्याचारों से लोक त्रस्त थे। देव जुणगा जब शिरगुल पर विजय प्राप्त न कर सका, तो जम्मू-कश्मीर के देवता बिजट से सहायता मांगी। देव बिजट और शिरगुल में घमासान युद्ध हुआ।

देव शिरगुल ने चमत्कार प्रदर्शन करते हुए लोहे के ओलों की वर्षा की और बिजट देव ने अग्नि वर्षा करके उसके प्रभाव को अस्तित्वहीन कर दिया। तब देव बिजट और शिरगुल में संधि स्वरूप गिरिपार का क्षेत्र शिरगुल को और शिमला जुणगा का क्षेत्र बिजट को मिला। दूसरी लोक कथा के अनुसार जिस समय राजपूतों का समूलनाश करने का परशुराम ने बीड़ा उठाया, उस समय राजपूतों की रक्षा के लिए दानव देव (सहस्त्रबाहु) ने परशुराम का डटकर मुकाबला किया।

राजपूत राजाओं, राणाओं की रक्षा के कारण दानव देव महासू के निचले क्षेत्र में पूजित हुए हैं और यहां भी मन्नत-मनौतियों के परिप्रेक्ष्य में शुरू हुआ करियालाओं का कभी न समाप्त होने वाला सिलसिला। सोलन जनपद के कुनिहार क्षेत्र में कुनिहार के राणा हरदेव सिंह शरद पूर्णिमा के आसपास 16 करियाले दानव देवता के लिए मन्नत-मन्नौतियों के रूप में करते थे। हालांकि आज भी इन नाट्य मंचों का मंचन आज भी कभी कभी देखने सुनने को मिल जाता है लेकिन आज इनका चलन न के बराबर ही गया है।