कांगड़ा: देवभूमि हिमाचल अपने अंदर कई रहस्यों को समेटे हुए है। यहां के मंदिरों का अपना प्राचीन ऐतिहासिक महत्व है। हरिद्वार के बाद इस जगह को पवित्र व मोक्षधाम माना जाता है। ऐसा ही रहस्यमयी मंदिर है देहरा स्थित कालेश्वर मंदिर जिसे कालीनाथ मंदिर भी कहा जाता है। कालेश्वर का अर्थ है ‘कालस्य ईश्वर’ अर्थात काल का स्वामी, काल का स्वामी शिव है। उज्जैन के महाकाल मंदिर के बाद कालेश्वर मंदिर एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसके गर्भ गृह में ज्योर्तिलिंग स्वयम्भू प्रकट है। ये शिवलिंग जलहरी से नीचे स्थित है।
कालेश्वर कालीनाथ मंदिर का इतिहास पांडवों से जुड़ा हुआ माना जाता है। धार्मिक मान्यता के मुताबिक़ यहां पर पांडव अपने अज्ञातवास के दौरान पहुंचे थे। पांडवों ने ही ब्यास नदी के तट पर पौड़ियां बनाई थी। कहा जाता है कि पांडव जब यहां आए तो भारत के पांच प्रसिद्ध तीर्थों हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन, नासिक व रामेश्वरम का जल अपने साथ लाए थे। उस जल को पांडवों ने तालाब में डाल दिया था जिसे ‘पंचतीर्थी’ के नाम से जाना जाता है। तभी से पंचतीर्थी तथा ब्यास नदी में स्नान को हरिद्वार स्नान के समान माना जाता है।
मंदिर के बारे में ये भी कहा जाता है कि महर्षि व्यास ने इस स्थान पर घोर तपस्या की थी। इसका प्रमाण इस स्थल पर स्थित ऋषि मुनियों की समाधियां से मिलता है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ मंदिर 15वीं सदी का बना हुआ है। ये भी माना जाता है कि मंदिर का निर्माण पांडवों, कुटलैहड़, एवं जम्मू की महारानी के साथ राजा गुलेर ने करवाया था।
इस तीर्थ स्थल को महाकाली की तपोस्थली भी माना जाता है। पुराणों में महादैत्य जालंधर का वर्णन मिलता है। सतयुग में हिमाचल की शिवालिक पहाड़ियों में दैत्य राज जालंधर का आतंक भरा साम्राज्य था। दैत्य राज के आंतक से निजात पाने के लिए सभी देवता एवं ऋषि मुनियों ने भगवान विष्णु से फ़रियाद की। फलस्वरूप देवों, ऋषियों, मुनियों ने अपने अपने शरीर से शक्तियां प्रदान कर महाकाली की उत्पती की। राक्षसों का अंत करने के बाबजूद भी महाकाली का क्रोध शांत नही हुआ।
महाकाली का क्रोध शांत करने के लिए भगवान शिव महाकाली की राह में लेट गए जब महाकाली का पांव महाकाल पर पड़ गया तो मां शांत तो हो गई। लेकिन इतनी बड़ी भूल का प्रयाश्चित करने के लिए वर्षों तक हिमालय पर विचरती रही। अंततः इसी स्थान पर व्यास नदी के किनारे भगवान शिव का तप किया। महाकाली के तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने महाकाली को दर्शन दिए। इस जगह पर महाकाली ने अपनी भूल का प्रायश्चित किया था। जिसका नाम कालीनाथ पड़ गया और इस जगह पर ज्योर्तिलिंग की स्थापना हुई साथ ही इस स्थान का नाम महाकालेश्वर पड़ गया।
इस मंदिर के किनारे पर शांत रूप में ब्यास नदी बहती रहती है। यहाँ पर दूर दूर से लोग श्मशान घाट में मृतकों को जलाने आते है। यहाँ पर चिताओं को जलाने से मोक्ष की प्राप्ति का साधन माना जाता है। इतना ही नही पूर्णिमा, अमावस्या एवं ग्रहण के दिनों में लोग स्नान करके पुण्य पाते हैं। लेकिन बैसाख माह की सक्रांति के पावन अवसर यहां स्नान का अपना महत्व है। इस माह यहाँ मेले का भी आयोजन किया जाता है। जिसमें दूर दूर से श्रद्धालु आते हैं।