<p>जिला कांगड़ा में आलमपुर से लगभग 2 किलोमीटर दूरी पर स्थित बालकरूपी मंदिर लाखों लोगों की आस्था का केन्द्र है। बच्चों का मुंडन संस्कार हो या फ़िर नई शादी यहां लोग जाकर शीश नवाते हैं। यहां मंडल के बाल या तो उसी दिन चढ़ाते है या फ़िर मुंडन के बाद भी यहां जाकर बाल चढ़ाने की रीत है। दुल्हनें इस मंदिर में अपना शादी का पहला पहना हुआ चूड़ा भी चढ़ाती हैं साथ ही दूल्हे के शेहरा भी इस मंदिर में चढ़ाया जाता है। मंगलवार, रविवार और शनिवार के दिन यहां भक्तजनों की भारी भीड़ जुटती है। रविवार और शनिवार को यहां भंडारा भी लगता है। लोग यहां आकर बकरे चढ़ाते और बिजेरते हैं।</p>
<p>इस मंदिर की कथा भगवान शिव से जुड़ी हुई है। दूसरे शब्दों में कहें तो ये मंदिर भगवान के बालकरूप का ही है। जो कि एक पिंडी के रूप में यहां विराजमान है। कहा जाता है कि प्राचीनकाल में एक वृद्ध महात्मा मणिमहेश की सरोवर यात्रा के लिए जा रहे थे तो रास्ते में एक भेड़ बकरी पालक (गद्दी) के यहां ठहरे। सुबह जाते वक्त महात्मा ने झोली गद्दी के पास रख दी और कहा कि मणिमहेश की यात्रा से लौटते वक्त इसको वह ले लेंगे। ये कहकर महात्मा मणिमहेश सरोवर की ओर निकल पड़े।</p>
<p>मणिमहेश पहुंचकर महात्मा भक्ति में इतने लीन हो गए की आंखे खोलना ही भूल गए। यात्रा में आए सभी भक्तगण लौट चुके थे सिर्फ़ वह ही अकेले पर्वत पर विराजमान थे। आंख खुली तो देखा कि एक दिव्य कन्या पर्वत पर चढ़ी जा रही है। महात्मा भी उस कन्या के पीछे चल दिए व भोलेनाथ के द्वार पहुंच गए। जब शिव शंकर ने पार्वती से उस महात्मा के बारे में पूछा तो पार्वती ने कहा कि प्रभु आपके पुत्र के सिवाए यहां कौन पहुंच सकता है। ये सुनकर प्रभु ने वृद्ध महात्मा के ऊपर हाथ फेरा ओर वह बालकरूप हो गए। तब शिव शंकर ने कहा कि तुम मेरा ही बालक रूप हो तुम्हारे दर्शन और भक्ति से वही फल भक्तजनों को मिलेगा जो मेरे दर्शनों और भक्ति से मिलता है।</p>
<p>बालकरूपी रूप धर महात्मा गद्दी के पास आए लेकिन उस गद्दी ने उन्हें नही पहचाना। तब बालकरूपी ने सारा वृतांत सुना डाला। ये सुनकर गद्दी भी भगवान शंकर से मिलने की ज़िद पर अड़ गया। गद्दी का हट देख बालकरूपी उसको लेकर मणिमहेश की ओर चल दिया और शिव धाम चढ़ने लगे। उसी समय आकाशवाणी हुई कि तुम यहां नहीं आ सकते लेकिन गद्दी नहीं माना तो वहीं शिला हो गया और बालकरूपी को आदेश दिया कि तुम निजाश्रम चले जाओ। ये कहा जाता है कि शिव शंकर की कृपा से शिला बना गद्दी गण बन गया जिसको की (कालीनाथ जी) बाबा बड़ोह के नाम से जाना जाता है। जिनका स्थान कांगड़ा में है।</p>
<p>उधर बालकरूपी निजाश्रम जाकर भक्ति में लीन हो गए। जहां "जोगु राम" गाए भैंस चराने जाया करते थे। हर दिन एक कट्टी (कुंआरी भैंस) पशुओं के झुंड से बिछड़ जाती और शाम को लौट आती। एक दिन जोगु राम ने सोचा कि देखूं तो सही ये भैंस हर दिन कहां जाती है। पीछा करते करते जब जोगु राम निजाश्रम पहुंचे तो देखाकर आश्चर्यचकित रह गए कि बालकरूपी के कमण्डल में कट्टी दूध दे रही है जिसको वह पी रहे हैं। जोगु राम चमत्कार देख बालकरूपी के चरणों में गिर गए और उनकी सेवा में ही जुट गए। कभी कभी घर आते ने खाना खाने की सुध न अपने आप की। घरवाले परेशान हो गए कि आखिरकार जोगु को क्या हो गया है?</p>
<p>बालकरूपी ने जोगु राम को कहा कि जब तक मेरा रहस्य तेरे पास है तभी तक मे तुझे इस रूप में मिलेगा जिस दिन ये भेद सबके सामने खुल जाएगा उस दिन मेरी प्रतिमा लिंगाकार के रूप में मिलेगी जिसके गले मे शेषनाग व यज्ञोपवीत का स्पष्ट चिन्ह होगा। मूर्ति को उखाड़ने के दौरान जिस जगह चोट लगेगी वहां से दूध व खून निकलेगा। उसे साक्षात मेरा ही विग्रह समझ लेना। लेकिन जोगु राम को बालकरूपी से बिछोह वज्रपात सा लगने लगा व वह ओर परेशान रहने लगा। कहा जाता है कि जोगु राम के व्यवहार से परेशान माता पिता ने भागसू के एक महात्मा श्री योगिराज लालपुरी को ये संकट बताया। तब महात्मा ने सारा राज जानकर विधि विधान से बालकरूपी की लिंग रूपी मूर्ति को पालकी में लेकर चल दिए।</p>
<p>जैसे ही ये मूर्ति को लेकर पानी के कुंड के पास पहुंचे मूर्ति भारी हो गई और वहीं रखनी पड़ी। तब मूर्ति से आवाज़ आई कि पहले मूर्ति का कुंड में स्नान करवाएं तब आगे ले जाएं। ऐसा करने पर मूर्ति उठ गई और वर्तमान स्थान में विराजमान कर दी गई। जहां मूर्ति को स्नान करवाया गया उस कुंड में नहाने से जहां खेतरी, भूचरी जैसी व्याधियों का नाश होता है तो वहीं कोई निसन्तान महिला भी यदि इसमें स्नान कर ले तो उसकी गोद भी भर जाती है। महात्मा लाल पूरी ने ही मूर्ति की स्थापना करवाई थी। बाल शंकर भगवान रूपी जी की ये कथा प्राचीन काल से चली आ रही है। जिसका वर्णन पुराणों में भी मिलता है। बालकरूपी के दर्शनों के साथ नंदी बैल की भी तांबे की विशालकाय मूर्ति भी यहां विराजमान है। नंदी बैल से भी एक कथा जुड़ी हुई है जो समाचार फर्स्ट के दर्शकों को बाद में बताई जाएगी। आज भी जोगु राम के वंशज मंदिर की देखरेख करते हैं।</p>
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